कट्टरपंथ के खिलाफ पढ़े-लिखे मुसलमानों की खामोशी के मायने

भारत में धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा हजारों वर्षों पुरानी है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में लव जेहाद, आतंकवाद, धर्मांतरण और गजवा-ए-हिन्द जैसे मुद्दों ने इस सामाजिक ताने-बाने को गंभीर चुनौती दी है। विशेषकर हिंदू समाज और बेटियों के माता-पिता के मन में भय गहरा होता जा रहा है। लव जेहाद शब्द सबसे पहले 2009 में केरल और कर्नाटका पुलिस की जांच में सामने आया। बाद में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश ने ऐसे मामलों को रोकने के लिए कानून भी बनाए। 2020 में उत्तर प्रदेश में बना कानून कहता है कि अगर कोई व्यक्ति शादी के नाम पर जबरन धर्मांतरण करता है तो उसे 10 साल तक की जेल हो सकती है। यूपी के बलरामपुर में ऐसा ही एक मौलाना पकड़ा गया, जो हिन्दू लड़कियों को मुस्लिम लड़कों के सहारे बरगलाने का सिंडिकेट चला रहा था। इसने हिन्दू लड़कियों के धर्मांतरण के लिये उनकी जाति के अनुसार रेट तक फिक्स कर रखे थे।

धर्मांतरण का मुद्दा ऐतिहासिक रूप से भी विवादास्पद रहा है। 1920 में आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन चलाया, ताकि जबरन या धोखे से धर्मांतरण करने वालों को फिर से हिंदू धर्म में लाया जा सके। संविधान के अनुच्छेद 25 में सभी को धर्म की स्वतंत्रता दी गई है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि यह स्वतंत्रता जबरन या धोखे से किए गए परिवर्तन पर लागू नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट ने 1977 में रतन लाल केस में कहा था कि धर्म परिवर्तन तभी वैध है जब वह पूरी तरह स्वेच्छा से हो। बात गजवा-ए-हिन्द की कि जाए तो इसकी अवधारणा का जिक्र 13वीं सदी की इस्लामी किताबों में मिलता है। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने 2003 में एक इंटरव्यू में कहा था, भारत को कमजोर करने के लिए कश्मीर से शुरू करके पूरे भारत में जिहाद फैलाना हमारी रणनीति का हिस्सा है। इसी तरह, हाफिज सईद ने भी कई बार सार्वजनिक रूप से कहा है कि हमारा अंतिम लक्ष्य गजवा-ए-हिन्द है।

केरल के प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान मौलाना कनीमैय्यून ने 2020 में एक टीवी डिबेट में कहा था, इस्लाम में किसी भी तरह का जबरन धर्मांतरण हराम है। लेकिन समाज के भीतर कट्टरपंथी सोच इतनी गहरी हो गई है कि लोग खुलकर बोलने से डरते हैं। इसी तरह, पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने एक इंटरव्यू में कहा था, हमारे समाज में सुधार की सबसे बड़ी जरूरत है। जब तक हम कट्टरपंथ के खिलाफ नहीं बोलेंगे, तब तक मुसलमानों की छवि सुधर नहीं सकती। सुप्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, मुस्लिम समाज के भीतर सुधार की आवाज उठाने वालों को गद्दार कहकर चुप कराया जाता है। जब तक मुस्लिम समाज खुद सामने आकर कट्टरपंथ को नकारेगा नहीं, तब तक महिलाएं और लड़कियां सबसे ज्यादा पीड़ित रहेंगी।

कई सर्वे और रिपोर्ट बताते हैं कि 2021 में हुए एक सर्वे में लगभग 60 फीसदी हिंदू माता-पिता ने कहा कि वे अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजने से डरते हैं। वजह यह कि कहीं उनकी बेटियाँ कथित प्रेमजाल में फँसकर जबरन धर्म परिवर्तन न कर लें। धर्मांतरण के मामलों में भी कई दर्दनाक उदाहरण सामने आए हैं। 2017 में केरल की हदिया केस में जबरन धर्मांतरण और शादी का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा। हदिया ने बाद में अदालत में कहा कि उसने अपनी मर्जी से धर्म बदला, लेकिन एनआईए की रिपोर्ट में कई संदिग्ध नेटवर्क के लिंक सामने आए। इस तरह की वारदातों पर मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे वर्ग की खामोशी पर दिल्ली के मौलाना वहीदुद्दीन खान ने कहा था, मुसलमानों को चाहिए कि वे साफ-साफ कहें कि वे कट्टरपंथ के साथ नहीं खड़े हैं। अगर आप चुप रहते हैं, तो इसका मतलब है कि आप अप्रत्यक्ष समर्थन दे रहे हैं।

भारत में आतंकवाद की घटनाएं दशकों से न सिर्फ देश की सुरक्षा बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी बुरी तरह प्रभावित करती रही हैं। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए हमले ने लोकतंत्र के मंदिर को निशाना बनाया, तो 26/11 के मुंबई हमलों में पाकिस्तान से आए आतंकियों ने 166 मासूमों की जान ले ली। 2016 में जम्मू-कश्मीर के उरी सेक्टर में सेना के ब्रिगेड मुख्यालय पर आत्मघाती हमला कर 19 भारतीय जवानों को शहीद कर दिया गया। 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में जैश-ए-मोहम्मद के फिदायीन हमलावर ने CRPF के काफिले पर हमला कर 40 जवानों को मौत के घाट उतार दिया। और हाल ही में, 22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग ज़िले के पहलगाम स्थित बीसारन घाटी में एक और दिल दहला देने वाला आतंकी हमला हुआ, जिसमें धर्म पूछकर 26 निर्दोषों की हत्या कर दी गई  25 हिन्दू, एक ईसाई और एक मुस्लिम गाइड जिसने जान देकर कई लोगों को बचाया। रिपोर्ट्स के मुताबिक आतंकियों ने यात्रियों को रोका, उन्हें कलमा सुनाने को कहा और जो नहीं सुना सके, उन्हें गोली मार दी गई। इस घटना ने न सिर्फ कश्मीर घाटी में दहशत पैदा की बल्कि पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। लेकिन इन तमाम घटनाओं के बाद भी एक बात जो हर बार सामने आती है, वह है पढ़े-लिखे मुसलमानों और तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की चुप्पी। जब भी इस्लामिक आतंकवाद की बात होती है, तब ये वर्ग या तो खामोश रहता है या विषयांतर कर देता है। यह खामोशी सिर्फ वैचारिक निष्क्रियता नहीं, बल्कि उस सामाजिक भरोसे को कमजोर करती है जो बहुलतावादी भारत की आत्मा है। आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता में जब सबकी आवाज़ जरूरी है, तब इस वर्ग की यह चुप्पी समाज में अविश्वास और विभाजन की खाई को और चौड़ा करती है।

इतिहास में भी इस तरह के उदाहरण मिलते हैं। औरंगजेब के काल में हिंदुओं पर जज़िया कर लगाया गया और हजारों मंदिर तोड़े गए। जबकि अकबर ने दीन-ए-इलाही जैसी नई धार्मिक विचारधारा के जरिए सहिष्णुता का संदेश दिया। यह ऐतिहासिक घटनाएँ आज भी समाज में अविश्वास की जड़ें मजबूत करती हैं। सोशल मीडिया पर कट्टरपंथी विचारों का प्रचार भी एक बड़ा कारण है। कई बार वीडियो और संदेश वायरल होते हैं, जिनसे समाज में भय फैलता है। कुछ मामलों में यह सच भी निकलता है, जैसे कि कर्नाटका की एक छात्रा के केस में, जहाँ लड़की को प्रेमजाल में फंसाकर धर्म परिवर्तन कराया गया और बाद में उसे विदेश भेजने की साजिश रची गई। इन तमाम घटनाओं और ऐतिहासिक संदर्भों के बीच पढ़े-लिखे मुसलमानों और बुद्धिजीवियों की खामोशी हिंदू समाज में भय और असुरक्षा की भावना को और बढ़ा देती है। खासकर बेटियों के माता-पिता को लगता है कि उनकी बेटियों की सुरक्षा और सम्मान अब खतरे में है।

लब्बोलुआब यह है कि भारत की ताकत उसकी विविधता में है, लेकिन इस विविधता को बचाने के लिए जरूरी है कि मुस्लिम समाज का पढ़ा-लिखा वर्ग और बुद्धिजीवी खुलकर बोलें। उन्हें यह बताना होगा कि लव जेहाद, आतंकवाद और जबरन धर्मांतरण इस्लाम के खिलाफ हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो समाज में अविश्वास और भय की खाई और गहरी होती जाएगी। यह समय चुप्पी साधने का नहीं है, बल्कि सच के साथ खड़े होकर कट्टरपंथ का विरोध करने का है।

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