
समाजवादी पार्टी के मुखिया और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इन दिनों लगातार राजनीतिक गलती कर रहे हैं। या तो वह ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं, या फिर अभी भी उत्तर प्रदेश की राजनीति की नब्ज को पूरी तरह से समझ नहीं सके हैं। पहले औरंगजेब को लेकर दिया गया उनका बयान और अब राणा सांगा पर दिए गए उनके रुख से यही स्पष्ट होता है कि वह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। राजधानी लखनऊ में रविवार को अखिलेश यादव ने राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन के राणा सांगा को ‘गद्दार’ कहने वाले बयान का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि जब भाजपा नेता औरंगजेब पर चर्चा करने के लिए इतिहास को पलट सकते हैं, तो रामजी लाल सुमन ने भी इतिहास के एक पन्ने का जिक्र किया है। यह बयान सामने आते ही राजनीतिक गलियारों में भूचाल आ गया। भाजपा इसे हिंदू गौरव का अपमान बता रही है, वहीं सपा इसे अपने दलित और मुस्लिम वोट बैंक को साधने की रणनीति के तहत देख रही है। भाजपा ने अखिलेश यादव को निशाने पर लेते हुए कहा कि यह पूरे हिंदू समाज का अपमान है।
स्वामी प्रसाद मौर्य का उदाहरण सामने है, जिन्होंने समाजवादी पार्टी में रहते हुए हिंदू देवी-देवताओं पर कई आपत्तिजनक बयान दिए थे। अखिलेश यादव ने तब भी उनका समर्थन किया था, लेकिन जब पार्टी को नुकसान होने लगा, तब उन्हें किनारे करना पड़ा। 2024 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने समझदारी दिखाते हुए स्वामी प्रसाद को साइडलाइन कर दिया था, जिससे उन्हें फायदा भी हुआ। लेकिन अब रामजी लाल सुमन के बयान पर उनकी चुप्पी बताती है कि वह फिर से वही गलती दोहरा रहे हैं। अखिलेश यादव को समझना होगा कि केवल मुस्लिम और पिछड़े वोटों के सहारे राजनीति नहीं की जा सकती। उन्हें यह भी देखना होगा कि राजपूत, ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियां भी उनके पक्ष में आ सकती हैं, अगर वह सही रणनीति अपनाएं।
राजपूत समाज पहले समाजवादी पार्टी का एक अहम समर्थक था। मुलायम सिंह यादव के दौर में राजपूत समाज के कई बड़े नेता सपा में शामिल थे और पार्टी को उनका समर्थन भी मिलता था। 2003 में जब मायावती ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था, तब बसपा के 13 विधायकों ने मुलायम सिंह यादव का समर्थन कर सरकार बनवाई थी। इनमें से कई विधायक राजपूत समुदाय से थे। 2012 तक भी सपा की सरकार में ठाकुर नेताओं की अच्छी खासी भागीदारी थी। लेकिन योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह समीकरण बदल गया। भाजपा ने हिंदुत्व की राजनीति को धार दी और राजपूतों को बड़े पैमाने पर अपने पक्ष में कर लिया। इसके बावजूद, 2024 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव को सवर्णों का भी समर्थन मिला था, खासकर राजपूतों का। गुजरात के मंत्री पुरुषोत्तम रूपाला के बयान के खिलाफ राजपूत समाज ने सपा को समर्थन देने का फैसला किया था, जिससे भाजपा को नुकसान हुआ।
घोसी विधानसभा के उपचुनाव में भी राजपूतों ने भाजपा के बजाय सपा के प्रत्याशी को समर्थन दिया था। यह दिखाता है कि अगर परिस्थितियां अनुकूल हों, तो राजपूत सपा को वोट देने में हिचकिचाते नहीं हैं। लेकिन राणा सांगा के अपमान को लेकर सपा का जो रुख सामने आया है, वह राजपूतों को नाराज कर सकता है। भाजपा इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। भाजपा पहले से ही अखिलेश यादव पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है। ऐसे में राणा सांगा के अपमान का मामला भाजपा को एक और बड़ा हथियार दे सकता है।
अखिलेश यादव को यह समझना चाहिए कि 2024 के चुनावों में मिली सफलता केवल पिछड़े और मुस्लिम वोटों के कारण नहीं थी, बल्कि इसमें सवर्णों का भी योगदान था। भाजपा के कुछ फैसलों से नाराज होकर सवर्ण मतदाताओं ने सपा को समर्थन दिया था। ऐसे में अगर अखिलेश यादव बार-बार हिंदू प्रतीकों का अपमान करने वालों का बचाव करेंगे, तो यह सवर्णों को दूर कर देगा। उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि 2027 के विधानसभा चुनाव में अगर उन्हें भाजपा को कड़ी टक्कर देनी है, तो सभी वर्गों का समर्थन जरूरी होगा।
भाजपा के पास अपने कोर वोट बैंक के साथ-साथ सवर्णों का भी व्यापक समर्थन है। योगी आदित्यनाथ की छवि एक कट्टर हिंदू नेता की है, जो राजपूत समुदाय को आकर्षित करती है। अगर अखिलेश यादव भाजपा से मुकाबला करना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी रणनीति बदलनी होगी। केवल पिछड़े और मुस्लिम वोटों पर निर्भर रहकर वह भाजपा को नहीं हरा सकते। उन्हें अपनी छवि को सभी वर्गों के नेता के रूप में स्थापित करना होगा।
समाजवादी पार्टी को अगर उत्तर प्रदेश में मजबूत होना है, तो उसे हिंदू वोटों को भी साधना होगा। भाजपा के खिलाफ एक मजबूत विपक्ष बनने के लिए जरूरी है कि सपा सभी समुदायों को साथ लेकर चले। रामजी लाल सुमन जैसे नेताओं के विवादित बयानों से दूरी बनानी होगी और हिंदू प्रतीकों के अपमान को समर्थन देने से बचना होगा। नहीं तो आने वाले चुनावों में भाजपा इसका पूरा फायदा उठाएगी और सपा को नुकसान होगा। अखिलेश यादव को अब यह तय करना होगा कि वह केवल एक वर्ग की राजनीति करेंगे या फिर सभी को साथ लेकर चलने वाली रणनीति अपनाएंगे।
इसके अलावा, अखिलेश यादव को भाजपा की रणनीति को भी ध्यान से समझना होगा। भाजपा लगातार सपा को मुस्लिम तुष्टिकरण की पार्टी बताकर हिंदू वोटों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करती रही है। अगर सपा इस छवि को तोड़ने में सफल नहीं होती है, तो 2027 में उसे बड़ा नुकसान हो सकता है। भाजपा की रणनीति केवल हिंदुत्व तक सीमित नहीं है, बल्कि वह विकास और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भी मतदाताओं को प्रभावित कर रही है। ऐसे में सपा को भी अपनी रणनीति बदलनी होगी और एक व्यापक समाजवादी एजेंडा पेश करना होगा, जो सभी वर्गों को जोड़ सके।
वर्तमान परिदृश्य में उत्तर प्रदेश की राजनीति काफी तेज़ी से बदल रही है। भाजपा लगातार अपने संगठन को मजबूत कर रही है और नए सामाजिक समीकरण बनाने की कोशिश कर रही है। वहीं, अखिलेश यादव बार-बार ऐसे बयान दे रहे हैं, जो भाजपा को फायदा पहुंचा सकते हैं। समाजवादी पार्टी को अब ठोस रणनीति बनानी होगी और जमीनी स्तर पर काम करना होगा। सिर्फ बयानों से राजनीति नहीं की जा सकती, बल्कि लोगों के मुद्दों को समझना और उनके समाधान के लिए प्रयास करना भी जरूरी है। अगर अखिलेश यादव समय रहते अपनी गलतियों को नहीं सुधारते हैं, तो 2027 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को बड़ा नुकसान हो सकता है।