भारत की सियासत में एक बार फिर से उपराष्ट्रपति चुनाव की सरगर्मी तेज हो चुकी है। रविवार, 17 अगस्त 2025 को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने संसदीय बोर्ड की बैठक में महाराष्ट्र के वर्तमान राज्यपाल सी. पी. राधाकृष्णन को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के उपराष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में घोषित किया। इस फैसले ने न केवल सत्ताधारी गठबंधन की रणनीति को उजागर किया, बल्कि विपक्षी खेमे में भी खलबली मचा दी। भाजपा अध्यक्ष जे. पी. नड्डा ने इस घोषणा के साथ साफ कर दिया कि उनकी पार्टी विपक्ष के साथ बातचीत कर राधाकृष्णन के नाम पर सर्वसम्मति बनाने की कोशिश करेगी। यह कदम न केवल सियासी चालबाजी का हिस्सा है, बल्कि दक्षिण भारत में भाजपा की पैठ मजबूत करने और सामाजिक-क्षेत्रीय समीकरण साधने की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है।
सी. पी. राधाकृष्णन का चयन अपने आप में एक मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है। तमिलनाडु के तिरुप्पुर में 20 अक्टूबर 1957 को जन्मे राधाकृष्णन का सियासी सफर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की पृष्ठभूमि से शुरू हुआ। 16 साल की उम्र में ही वे संघ से जुड़ गए थे और 1974 में भारतीय जनसंघ की तमिलनाडु कार्यकारिणी के सदस्य बने। कोयंबटूर से दो बार (1998 और 1999) लोकसभा सांसद रह चुके राधाकृष्णन ने 2004 से 2007 तक तमिलनाडु भाजपा के अध्यक्ष के रूप में भी अहम भूमिका निभाई। इस दौरान उन्होंने 93 दिनों तक 19,000 किलोमीटर की रथ यात्रा निकाली, जिसमें नदियों को जोड़ने, आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, समान नागरिक संहिता और अस्पृश्यता के उन्मूलन जैसे मुद्दों को उठाया गया। उनकी यह सक्रियता और संगठनात्मक कौशल उन्हें भाजपा के लिए दक्षिण भारत में एक मजबूत स्तंभ बनाता है।
राधाकृष्णन की उम्मीदवारी के पीछे भाजपा की रणनीति कई स्तरों पर सियासी समीकरण साधने की कोशिश करती दिखाई देती है। पहला, यह दक्षिण भारत में भाजपा की पैठ को मजबूत करने का एक सुनहरा अवसर है। तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में भाजपा का प्रभाव अभी भी सीमित है। 2024 के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में भाजपा को 11.24% वोट मिले, जो 2019 के 3.7% से काफी बेहतर है, लेकिन डीएमके (26.93%) और एआईएडीएमके (20.46%) के सामने यह आंकड़ा अभी भी कमजोर है। अगले साल तमिलनाडु में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए राधाकृष्णन का चयन तमिल अस्मिता और क्षेत्रीय गौरव को साधने की कोशिश है। तमिलनाडु के प्रभावशाली गौंडर समुदाय, जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का हिस्सा है, से ताल्लुक रखने वाले राधाकृष्णन का नामांकन इस समुदाय को लुभाने का एक प्रयास है।
दूसरा, यह कदम विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ब्लॉक की एकता को चुनौती देता है। डीएमके और शिवसेना (यूबीटी) जैसे दल, जो विपक्षी गठबंधन का हिस्सा हैं, अब कशमकश में हैं। डीएमके के लिए राधाकृष्णन का विरोध करना मुश्किल होगा, क्योंकि वे तमिलनाडु के बेटे हैं और उनकी उम्मीदवारी को क्षेत्रीय अस्मिता से जोड़कर देखा जा रहा है। डीएमके के 32 सांसदों (लोकसभा और राज्यसभा में) की ताकत को देखते हुए, इसका समर्थन या विरोध तमिलनाडु की सियासत में बड़ा मुद्दा बन सकता है। उधर, शिवसेना (यूबीटी) के नेता संजय राउत ने राधाकृष्णन की तारीफ में कहा कि वे एक अनुभवी और गैर-विवादास्पद नेता हैं। यह बयान इस बात का संकेत है कि उद्धव ठाकरे के लिए राधाकृष्णन का विरोध करना आसान नहीं होगा, क्योंकि वे महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं और उनके खिलाफ जाना स्थानीय स्तर पर गलत संदेश दे सकता है।
तीसरा, राधाकृष्णन की उम्मीदवारी सामाजिक समीकरणों को साधने का भी एक प्रयास है। ओबीसी समुदाय से आने वाले राधाकृष्णन का चयन विपक्ष, खासकर कांग्रेस, के उस नैरेटिव को कमजोर करता है, जो ओबीसी प्रतिनिधित्व और जातिगत जनगणना को लेकर सरकार पर सवाल उठाता रहा है। राहुल गांधी लगातार ओबीसी और दलित समुदायों की भागीदारी का मुद्दा उठाते रहे हैं। ऐसे में, जगदीप धनखड़ (जो स्वयं ओबीसी समुदाय से हैं) के बाद राधाकृष्णन जैसे ओबीसी नेता को उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने विपक्ष को जवाब देने की कोशिश की है।
चौथा, राधाकृष्णन का चयन आरएसएस और भाजपा की वैचारिक एकजुटता को दर्शाता है। राधाकृष्णन का लंबा सियासी सफर और संघ से गहरा जुड़ाव उन्हें इस पद के लिए एक मजबूत दावेदार बनाता है। 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद से भाजपा ने संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं को खास तवज्जो दी है। हाल ही में चुने गए कई प्रदेश अध्यक्षों में संघ का प्रभाव साफ दिखाई देता है। 15 अगस्त 2025 को लाल किले से अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आरएसएस के योगदान का जिक्र किया, जो इस बात का संकेत है कि पार्टी और संघ के बीच बेहतर समन्वय है। राधाकृष्णन जैसे नेता, जो जनसंघ के दौर से पार्टी के साथ हैं, को उपराष्ट्रपति उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने कार्यकर्ताओं को यह संदेश दिया है कि वह अपनी विचारधारा और समर्पित नेताओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है।
पांचवां, यह कदम विपक्षी खेमे में सेंधमारी की रणनीति का हिस्सा है। इतिहास गवाह है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ने एक-दूसरे के गठबंधन में सेंधमारी की है। 2007 में यूपीए की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को शिवसेना ने समर्थन दिया था, जो उस समय एनडीए का हिस्सा थी। 2012 में प्रणब मुखर्जी को भी शिवसेना और जेडीयू ने वोट दिया था। 2017 में राम नाथ कोविंद को जेडीयू ने समर्थन दिया था, जबकि वह विपक्ष में था। 2022 के उपराष्ट्रपति चुनाव में टीएमसी ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया, जिससे विपक्षी एकता कमजोर हुई थी। इस बार राधाकृष्णन की उम्मीदवारी ने डीएमके, शिवसेना (यूबीटी) और टीएमसी जैसे दलों के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी है।
उपराष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया 9 सितंबर 2025 को मतदान के साथ पूरी होगी। नामांकन की अंतिम तिथि 21 अगस्त है, और यदि विपक्ष भी अपना उम्मीदवार उतारता है, तो यह मुकाबला और दिलचस्प हो सकता है। लेकिन राधाकृष्णन की उम्मीदवारी ने विपक्षी गठबंधन की एकता को परखने की स्थिति पैदा कर दी है। डीएमके और शिवसेना (यूबीटी) जैसे दलों के सामने यह सवाल है कि क्या वे अपने सियासी हितों को प्राथमिकता देंगे या क्षेत्रीय और स्थानीय भावनाओं को।
राधाकृष्णन का व्यक्तित्व भी उनकी उम्मीदवारी को मजबूती देता है। टेबल टेनिस में कॉलेज चैंपियन रह चुके, लंबी दूरी के धावक और क्रिकेट-वॉलीबॉल जैसे खेलों के शौकीन राधाकृष्णन का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उन्होंने अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, चीन, जापान जैसे कई देशों की यात्राएं की हैं और 2016 में कोच्चि के कॉयर बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में भारत के कॉयर निर्यात को 2,532 करोड़ रुपये तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई।
भाजपा की यह रणनीति न केवल तमिलनाडु और महाराष्ट्र की सियासत को प्रभावित करेगी, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी एक मजबूत संदेश देगी। राधाकृष्णन की उम्मीदवारी के जरिए भाजपा ने दक्षिण भारत में अपनी जड़ें मजबूत करने, सामाजिक समीकरण साधने, वैचारिक एकजुटता दिखाने और विपक्षी एकता को कमजोर करने का दांव चला है। अब देखना यह है कि विपक्ष इस मास्टरस्ट्रोक का जवाब किस तरह देता है और क्या वह अपनी एकता को बरकरार रख पाता है। उपराष्ट्रपति चुनाव का यह रणक्षेत्र न केवल सियासी ताकत का इम्तिहान होगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि भारत की सियासत में क्षेत्रीय और सामाजिक समीकरणों का कितना असर है।