पीडीए पाठशाला से अखिलेश का नया सियासी दांव

त्तर प्रदेश की राजनीति इन दिनों एक नए मुद्दे की आग में तप रही है। समाजवादी पार्टी की ओर से शुरू की गई पीडीए पाठशाला ने न केवल सियासी हलकों में हलचल मचाई है, बल्कि सूबे के हर कोने में चर्चा का केंद्र बन गई है। लखनऊ से लेकर कानपुर, भदोही, मिर्जापुर और सहारनपुर तक, इन पाठशालाओं ने शिक्षा और सियासत के बीच एक ऐसी जंग छेड़ दी है, जो न तो पूरी तरह शैक्षिक है और न ही पूरी तरह राजनीतिक। यह एक ऐसा आंदोलन है, जो भावनाओं, अधिकारों और सत्ता की रस्साकशी के बीच फंसा हुआ है। एक तरफ योगी सरकार का स्कूल मर्जर का फैसला है, तो दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी का पीडीए पाठशाला के जरिए शिक्षा के अधिकार की लड़ाई का दावा। इस पूरे प्रकरण में जनता के बीच सवाल यह है कि आखिर यह लड़ाई शिक्षा के लिए है या सियासत के लिए?

पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा को लेकर योगी सरकार के फैसले चर्चा में हैं। सरकार ने 50 से कम छात्रों वाले स्कूलों को मर्ज करने का निर्णय लिया था। तर्क था कि कम छात्रों वाले स्कूलों को चलाना आर्थिक रूप से व्यवहारिक नहीं है। साथ ही, संसाधनों का बेहतर उपयोग और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए यह कदम जरूरी बताया गया। लेकिन इस फैसले ने विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा दे दिया। समाजवादी पार्टी ने इसे गरीब बच्चों के शिक्षा के अधिकार पर हमला करार दिया और पीडीए (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) के नारे को बुलंद करते हुए पाठशालाएं शुरू कर दीं। इन पाठशालाओं में ‘ए फॉर अखिलेश, बी फॉर बाबा साहेब, डी फॉर डिंपल’ जैसे नारे गढ़े गए, जिसे लेकर विपक्ष पर बच्चों के राजनीतिक इस्तेमाल का आरोप भी लगा। कई जिलों में सपा नेताओं के खिलाफ बिना अनुमति पाठशाला चलाने के लिए मुकदमे दर्ज हुए। कानपुर में सपा नेता रचना सिंह गौतम, सहारनपुर, मिर्जापुर और भदोही में भी इसी तरह की कार्रवाई देखने को मिली। प्रशासन ने साफ किया कि बच्चों को राजनीति का औजार बनाना बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

लेकिन सवाल यह है कि क्या पीडीए पाठशाला वाकई में शिक्षा के अधिकार की रक्षा के लिए शुरू की गई है? या फिर यह 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले सियासी जमीन तैयार करने का एक हथियार है? समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने इस आंदोलन को शिक्षा के मौलिक अधिकार से जोड़ते हुए इसे गरीबों और वंचितों की लड़ाई बताया है। उन्होंने योगी सरकार पर तंज कसते हुए कहा कि जहां भाजपा स्कूल बंद करेगी, वहां पीडीए पाठशाला खुलेगी। अखिलेश का यह बयान न केवल सियासी नारा है, बल्कि एक ऐसी रणनीति भी है, जो समाजवादी पार्टी को पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच मजबूत करने की कोशिश करती है। दूसरी ओर, सरकार का कहना है कि स्कूल मर्जर का फैसला शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए लिया गया है। बेसिक शिक्षा मंत्री संदीप सिंह ने हाल ही में नीति में संशोधन की घोषणा की, जिसमें 50 से ज्यादा छात्रों वाले स्कूलों का मर्जर नहीं करने, एक किलोमीटर से ज्यादा दूरी वाले स्कूलों को मर्ज न करने और शिक्षकों के पदों को बनाए रखने जैसे कदम शामिल हैं।

इस संशोधन को सपा ने अपनी जीत के रूप में पेश किया है। अखिलेश यादव ने इसे पीडीए पाठशाला आंदोलन की ‘महाजीत’ करार देते हुए कहा कि यह भाजपा की नैतिक हार है। उन्होंने सवाल उठाया कि अगर सरकार का ध्यान शिक्षा पर नहीं, बल्कि वोट की राजनीति पर है, तो फिर विकसित भारत का सपना कैसे पूरा होगा? सपा सांसद धर्मेंद्र यादव ने भी सरकार पर हमला बोला और दावा किया कि प्रदेश में 26,012 प्राथमिक स्कूल बंद हो चुके हैं, 5,000 स्कूलों का मर्जर हो चुका है और दो लाख से ज्यादा शिक्षक भर्तियां रुकी हुई हैं। उनका आरोप है कि सरकार गरीब बच्चों को शिक्षा से वंचित कर रही है, जबकि शराब की दुकानों की संख्या बढ़ा रही है।

यह पूरा प्रकरण एक गहरे सवाल को जन्म देता है। क्या शिक्षा जैसा संवेदनशील मुद्दा सियासत का औजार बनना चाहिए? एक तरफ सरकार का तर्क है कि स्कूल मर्जर से संसाधनों का बेहतर उपयोग होगा और शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ेगी। दूसरी ओर, विपक्ष का कहना है कि यह फैसला ग्रामीण और गरीब बच्चों की पहुंच से शिक्षा को दूर कर देगा। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन इस जंग में सबसे ज्यादा नुकसान उन बच्चों का हो रहा है, जिनके भविष्य को लेकर यह लड़ाई लड़ी जा रही है। ग्रामीण इलाकों में स्कूलों की स्थिति पहले से ही दयनीय है। शिक्षकों की कमी, बुनियादी सुविधाओं का अभाव और स्कूलों तक पहुंचने की दिक्कतें पहले से ही शिक्षा व्यवस्था को कमजोर कर रही हैं। ऐसे में स्कूल मर्जर जैसे फैसले ग्रामीण परिवारों के लिए और मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।

पीडीए पाठशाला का विचार अपने आप में एक सकारात्मक कदम हो सकता था, अगर इसे सही मायनों में शिक्षा से जोड़ा जाता। लेकिन ‘ए फॉर अखिलेश’ जैसे नारे इसकी मंशा पर सवाल उठाते हैं। शिक्षा को राजनीति से अलग रखना जरूरी है, क्योंकि यह बच्चों के भविष्य का सवाल है। समाजवादी पार्टी को यह समझना होगा कि शिक्षा के नाम पर सियासी नारेबाजी से ज्यादा जरूरी है, ठोस नीतियां और समाधान सुझाना। वहीं, सरकार को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि स्कूल मर्जर जैसे फैसले लेते समय ग्रामीण और गरीब बच्चों की जरूरतों को प्राथमिकता दी जाए।

इस पूरे विवाद में एक बात साफ है कि उत्तर प्रदेश में शिक्षा का मुद्दा अब केवल स्कूलों और किताबों तक सीमित नहीं रहा। यह एक सियासी जंग का मैदान बन चुका है, जहां हर पक्ष अपनी जीत की तलाश में है। लेकिन इस जंग में जीत न तो सरकार की होगी और न ही विपक्ष की। असली जीत तभी होगी, जब हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले, चाहे वह शहर में हो या गांव में। पीडीए पाठशाला और स्कूल मर्जर का यह विवाद हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारी प्राथमिकता शिक्षा है या सियासत? जवाब शायद वक्त देगा, लेकिन तब तक यह लड़ाई सूबे की सियासत को गर्माए रखेगी।

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