मायावती का राजनीतिक सफर किसी प्रेरणादायक कहानी से कम नहीं। 1984 में कांशीराम द्वारा स्थापित बसपा को उन्होंने दलितों की मजबूत आवाज बनाया। 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती ने 2007 में अपने करियर का सबसे सुनहरा दौर देखा। उस साल बसपा ने 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया, वोट शेयर 30.43 प्रतिशत तक पहुंचा। इस जीत का राज था मायावती की सामाजिक इंजीनियरिंग। दलितों के साथ ब्राह्मण, पिछड़े और मुस्लिम समुदायों का गठजोड़ इतना कारगर साबित हुआ कि बसपा सत्ता तक पहुंची और मायावती राष्ट्रीय स्तर पर दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बन गईं। लेकिन यह चमक ज्यादा दिन नहीं टिकी। 2012 में बसपा की सीटें घटकर 80 रह गईं, वोट शेयर 25.91 प्रतिशत तक सिमट गया। 2017 में हालात और बिगड़े, सिर्फ 19 सीटें मिलीं और वोट शेयर 22.23 प्रतिशत रहा। 2022 का विधानसभा चुनाव बसपा के लिए सबसे बड़ा झटका साबित हुआ, जब पूरे प्रदेश में सिर्फ एक सीट मिली और वोट शेयर 12.88 प्रतिशत तक गिर गया। यह गिरावट सिर्फ चुनावी हार नहीं थी, बल्कि बसपा के पारंपरिक दलित वोट बैंक के बिखराव की कहानी थी।
दलित वोटर, जो कभी बसपा की रीढ़ थे, अब कई खेमों में बंट गए हैं। खासकर जाटव समुदाय, जो मायावती का कोर सपोर्ट बेस रहा, अब भाजपा की ‘सबका साथ, सबका विकास’ नीति और हिंदुत्व के एजेंडे की ओर झुक रहा है। गैर-जाटव दलितों को भाजपा ने आरक्षण, मुफ्त राशन, उज्ज्वला जैसी योजनाओं के जरिए साध लिया। समाजवादी पार्टी ने यादव-मुस्लिम गठजोड़ के साथ दलित वोटों में सेंध लगाई, जबकि चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी ने युवा दलितों को आकर्षित किया। नतीजा यह हुआ कि बसपा का आधार छिन्न-भिन्न हो गया। हाल के लोकसभा चुनावों में भी बसपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा, जहां पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी। मायावती इस गिरावट को ईवीएम से जोड़ती हैं। उन्होंने हाल ही में कहा कि अगर चुनाव बैलट पेपर से होते, तो बसपा के अच्छे दिन लौट आते। उनका यह बयान सियासी हलकों में चर्चा का विषय बना, क्योंकि कई विपक्षी नेता भी ईवीएम पर सवाल उठा चुके हैं।
अब बात आगामी पंचायत चुनावों की। उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों की तैयारियां जोरों पर हैं। हालांकि पूर्ण चुनाव 2026 में होने की संभावना है, लेकिन 2025 में कुछ बाई-इलेक्शंस और प्रारंभिक तैयारियां चल रही हैं। सरकारी आदेश के मुताबिक, गांवों की डेलिमिटेशन प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। सियासी विश्लेषक इन्हें 2027 के विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल मानते हैं। भाजपा अपनी दोहरी सरकार की योजनाओं- जैसे किसान सम्मान निधि, आयुष्मान भारत और उज्ज्वला- पर भरोसा कर रही है। 2021 के पंचायत चुनावों में भाजपा ने जिला पंचायतों में बढ़त बनाई थी, लेकिन ग्राम और क्षेत्र पंचायत स्तर पर सपा ने कड़ी टक्कर दी थी। सपा इस बार किसान आंदोलन और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को भुनाने में जुटी है। कांग्रेस अपनी ओबीसी सेल को मजबूत कर पिछड़े वर्गों को साधने की कोशिश में है।
बसपा के लिए यह चुनाव न सिर्फ साख बचाने की लड़ाई है, बल्कि अस्तित्व का सवाल भी है। मायावती ने हाल ही में ऐलान किया कि बसपा 2027 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी, बिना किसी गठबंधन के। उन्होंने सोशल मीडिया पर कहा, “बसपा जातिवादी गठबंधनों से अलग, जनता के हित में काम करने वाली पार्टी है।” लेकिन पंचायत चुनावों को लेकर उनका रुख अलग है। कुछ खबरों के मुताबिक, बसपा जिला पंचायत चुनावों में हिस्सा नहीं ले रही, क्योंकि वे इसे पारदर्शी नहीं मानतीं। मायावती ने कहा, “निष्पक्ष चुनाव होते तो हम जरूर लड़ते।” इसके बजाय, पार्टी विधानसभा चुनावों की तैयारी पर ध्यान दे रही है। फिर भी, ग्रामीण स्तर पर बसपा सक्रिय है। मायावती ने अपने नेताओं को गांव-गांव छोटी-छोटी सभाएं करने के निर्देश दिए हैं, जहां दलित और पिछड़े वर्गों को जोड़ने पर जोर है। वे राष्ट्रीय और जाति जनगणना की मांग भी उठा रही हैं, ताकि दलितों और पिछड़ों को उचित प्रतिनिधित्व मिले। पार्टी युवाओं को जोड़ने के लिए कैडर कैंप चला रही है, जहां कांशीराम और अंबेडकर के विचारों को जन-जन तक पहुंचाया जा रहा है।
मायावती की रणनीति उनकी पुरानी सामाजिक इंजीनियरिंग की याद दिलाती है। वे पिछड़े वर्ग और मुसलमानों को टिकट देकर गठजोड़ बनाने की कोशिश में हैं। लेकिन चुनौतियां कम नहीं। कई बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके हैं, वोट शेयर लगातार गिर रहा है। कांग्रेस ने बसपा की इस कमजोरी को मौके में बदला है। उसने नीली झंडी को अपनाकर दलित वोटों पर फोकस किया है। इमरान मसूद जैसे नेता कांग्रेस में बसपा के साथ बेहतर भविष्य की बात कर रहे हैं, जो सपा-कांग्रेस गठबंधन में तनाव पैदा कर सकता है। मायावती को युवा और महिला वोटरों को आकर्षित करना होगा। चंद्रशेखर आजाद की पार्टी युवा दलितों को खींच रही है, जबकि भाजपा हिंदुत्व के दम पर गैर-जाटव दलितों को साधे हुए है।
मायावती की जाटव समुदाय में पकड़ अभी भी मजबूत है। वे सामाजिक न्याय और समावेशी विकास पर जोर दे रही हैं। हाल ही में उन्होंने अमेरिकी ट्रेड टैरिफ की निंदा कर आत्मनिर्भरता की बात की, जो उनकी राष्ट्रीय सोच को दर्शाता है। पंचायत चुनावों का नतीजा यह तय करेगा कि ग्रामीण स्तर पर बसपा की कितनी ताकत बची है। अगर वे यहां अच्छा प्रदर्शन करती हैं, तो 2027 में किंगमेकर की भूमिका निभा सकती हैं। लेकिन अगर रणनीति नाकाम रही, तो दलित राजनीति पूरी तरह भाजपा और सपा की ओर सरक सकती है।
2027 का विधानसभा चुनाव मायावती के लिए सिर्फ सत्ता की वापसी का सवाल नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक विरासत को बचाने की चुनौती है। क्या वे 2007 जैसा जादू फिर से दिखा पाएंगी, या इतिहास उन्हें एक दौर की सबसे शक्तिशाली दलित नेता के रूप में याद रखेगा? पंचायत चुनावों से तस्वीर साफ होगी। गांव-गांव में दलित, पिछड़े और युवा किसके साथ हैं, यह वक्त बताएगा। बसपा की वापसी की उम्मीद अभी जिंदा है, लेकिन रास्ता कांटों भरा है। मायावती ने पहले भी असंभव को संभव किया है, और शायद इस बार भी वे कुछ नया कर दिखाएं।