मुुंबई का माफिया डॉन अरूण गवली 17 साल बाद जेल से बाहर

मुंबई की अंधेरी गलियों और पुराने मोहल्लों में जिन नामों ने खौफ़ का साया फैला रखा था, उनमें से एक नाम अरुण गवली का भी है। कभी दूध बेचने वाले परिवार से ताल्लुक रखने वाले अरुण ने अपने हाथों को मेहनत की जगह खून-खराबे और सियासत के रंग में रंग डाला था। मुंबई में जहाँ एक ओर दाऊद इब्राहीम और अन्य गिरोह अपने दबदबे के लिए मशहूर थे, वहीं अरुण गवली ने भी अपने अलग अंदाज़ और ताक़तवर दिमाग से अपराध की दुनिया में अपनी पैठ बनाई। उसे लोग “डैडी” कहकर पुकारते थे, जो बाद में उसके राजनीतिक जीवन का भी हिस्सा बन गया।अरुण गवली का जीवन अपराध और राजनीति का ऐसा संगम है, जिसकी मिसालें कम ही देखने को मिलती हैं। सत्तर और अस्सी के दशक में जब मुंबई में गिरोहबाज़ी अपने चरम पर थी, तब गवली ने अपना अलग रास्ता चुना। वह पहले छोटे-मोटे कामों और अवैध धंधों से जुड़ा और धीरे-धीरे खून-खराबे से भरी राह पर चल पड़ा। उसका नाम कई हत्याओं में सामने आया और शहर की पुलिस के लिए वह बड़ी चुनौती बन गया। गिरोहबाज़ी के इस दौर में उसने अपना अलग गुट बना लिया, जो खुलेआम दाऊद इब्राहीम जैसे डॉन से भी टक्कर लेता था।

समय के साथ-साथ गवली केवल एक अपराधी नहीं रहा, बल्कि उसके इर्द-गिर्द एक ऐसा तंत्र खड़ा हो गया जो मोहल्लों में गरीब और मजबूर लोगों की मदद करता दिखाई देता। यही उसके लिए जनता तक पहुँचने का साधन बना। लोगों ने उसे अपने बीच का आदमी मानना शुरू किया। इसी छवि के सहारे उसने राजनीति के मैदान में कदम रखा और विधानसभा पहुँचने तक की राह तय की। मगर अपराध का साया उससे कभी पीछा नहीं छोड़ पाया। हत्या जैसे गंभीर मामलों में उसका नाम दर्ज हुआ और अंततः अदालत ने उसे उम्रकैद की सज़ा सुनाई।अब सत्रह साल बाद जब अरुण गवली जेल की सलाखों से बाहर आया है, तो मुंबई की हवा में फिर से चर्चा तेज़ हो गई है। पुराने लोग, जिन्होंने उसके खौफ का दौर देखा था, वे उसकी आज़ादी की ख़बर को आशंका की नज़र से देख रहे हैं। वहीं उसकी रिहाई से उन इलाक़ों में फिर से बहस शुरू हो गई है जहाँ कभी वह जनता का नेता कहलाता था।

गवली की रिहाई केवल एक अदद अपराधी की घर वापसी नहीं है, बल्कि यह उस कहानी का नया अध्याय है जिसमें अपराध और राजनीति हमेशा साथ-साथ चले। उसकी ज़िंदगी ने यह दिखाया कि मुंबई जैसे बड़े शहर में एक आम इंसान किस तरह हालात और महत्वाकांक्षा से अपराध की खाई में उतर जाता है और बाद में अपनी छवि को राजनीतिक ताक़त में बदल देता है।जेल से बाहर आते ही उसके समर्थकों ने उसका ज़ोरदार स्वागत किया। रंग-बिरंगे बैनर और जयकारे उस वक्त के गवाह बने जब वे अपने “डैडी” के दीदार को मचल उठे। अरुण गवली की आँखों में अब पहले जैसी जंगली चमक नहीं बल्कि ठहराव नजर आया, मगर राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अभी भी उसके व्यक्तित्व में छुपी हैं या नहीं, यह आने वाला समय बताएगा।

कहा जा रहा है कि जेल की चौखट लांघकर वह फिर से अपने पुराने मोहल्लों की गलियों तक पहुँचेगा और देखेगा कि उसके बिना वहाँ कितना बदलाव आया है। मुंबई तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ी है, इमारतों के जंगल खड़े हो गए हैं, मगर पुराने लोगों की यादों से उसका नाम अब भी मिटा नहीं है। कुछ उसे अपराधी कहकर कोसते हैं, तो कुछ उसे मददगार मानकर उसकी रिहाई से खुश नज़र आते हैं।कानून की दृष्टि से अरुण गवली एक सजायाफ्ता अपराधी है। अदालत का फैसला साफ़ है कि उसने हत्या जैसे संगीन जुर्म किए और इसके लिए लगभग दो दशक जेल में बिताए। मगर समाज की दृष्टि में उसकी छवि एक पहेली जैसी हैकृकभी खतरनाक अपराधी, कभी गरीबों का सहारा और कभी जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि। यही द्वंद उसकी कहानी को और दिलचस्प बनाता है।

मुंबई ने उसे खून और गोलियों की गूंज में भी देखा है और चुनावी मंच पर भाषण देते हुए भी। सत्रह साल बाद वह जब जेल से बाहर आया है, तो सवाल यह है कि क्या अब उसकी राह केवल परिवार और निजी जीवन तक सीमित होगी या फिर वह राजनीति और समाज में दोबारा सक्रिय भूमिका निभाएगा। मुंबई की राजनीति में उसकी वापसी कितनी असरदार हो सकती है, यह चर्चा अब हर नुक्कड़ और गलियों में होने लगी है।अरुण गवली का जीवन बताता है कि अपराध और राजनीति जब एक-दूसरे का हाथ थाम लेते हैं तो उसका असर समाज पर वर्षों तक बना रहता है। आज उसकी रिहाई से केवल एक व्यक्ति बाहर नहीं आया, बल्कि उसके साथ वे तमाम सवाल भी बाहर आए हैं जो दशकों से मुंबई के दिल में छुपे थे। यह कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती, बल्कि एक नए मोड़ पर आ खड़ी होती हैकृजहाँ देखना होगा कि गवली अब किस रास्ते का चुनाव करता है।

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