मुरादाबाद में बैंड बाजे पर बवाल नामों के खेल में उलझा समाज

शादी-ब्याह का जश्न हो या कोई धार्मिक आयोजन, बैंड बाजे की धुनें हर मौके को और रंगीन बना देती हैं। ढोल, ताशे और नगाड़ों की थाप पर बारातें थिरकती हैं, और ये बैंड खुशियों का प्रतीक बनते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में यही बैंड बाजा अब विवाद की तान छेड़ रहा है। शहर की गलियों में सजी बैंड की दुकानों पर सवालों की तलवार लटक रही है। एक शिकायत ने पूरे शहर को हिला दिया है। आरोप है कि मुस्लिम मालिक हिंदू देवी-देवताओं या हिंदू-जैसे नामों से बैंड चला रहे हैं, जिससे धार्मिक भावनाएं आहत हो रही हैं। आखिर ये माजरा क्या है? क्यों मुरादाबाद की गलियां बैंड बाजे के नाम पर सांप्रदायिक तनाव की चपेट में हैं? आइए, इस विवाद की तह तक जाते हैं।मुरादाबाद, जिसे पीतल नगरी के नाम से जाना जाता है, यहां बैंड बाजे का कारोबार भी उतना ही चमकदार है। जिले में 500 से ज्यादा बैंड ट्रूप्स हैं, जो शादियों, बारातों और धार्मिक आयोजनों में अपनी सेवाएं देते हैं। लेकिन 9 जुलाई 2025 को एक वकील ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के जनसुनवाई पोर्टल पर शिकायत दर्ज की, जिसने इस कारोबार को कटघरे में खड़ा कर दिया। शिकायत में कहा गया कि जिले में कई बैंड मुस्लिम मालिकों के हैं, लेकिन उनके नाम हिंदू देवी-देवताओं जैसे ‘दुर्गा बैंड’, ‘शिव बैंड’ या हिंदू-जैसे ‘शर्मा बैंड’, ‘रवि बैंड’ हैं। शिकायतकर्ता का दावा है कि ये नाम ग्राहकों को भ्रमित करते हैं और हिंदू समुदाय की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं।



शहर की गलियों में बैंड की दुकानों पर नजर डालें तो तस्वीर साफ होती है। एक दुकान पर ‘अशोक बैंड’ का बोर्ड दिखता है, लेकिन नीचे छोटे अक्षरों में मालिक का नाम है- हाजी अनीस। अगले मोड़ पर ‘रवि बैंड’ है, जिसके मालिक हैं हनीफ। तीसरी दुकान पर ‘मिलन बैंड’ है, जिसका मालिक है मोनू उर्फ इरफान। ये नाम देखकर सवाल उठता है कि क्या वाकई मालिक अपनी पहचान छिपाने की कोशिश कर रहे हैं? या ये सिर्फ बाजार की मांग है? शिकायतकर्ता का आरोप है कि ये कदम धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के साथ-साथ हिंदू ग्राहकों को गुमराह करते हैं।शिकायत के बाद जिला प्रशासन और पुलिस हरकत में आ गई। सिटी एसपी ने बैंड मालिकों को बुलाकर सख्त हिदायत दी कि हिंदू देवी-देवताओं के नाम हटाएं, क्योंकि ये धार्मिक संवेदनाओं को आहत कर सकते हैं। बैंड मालिकों ने नाम बदलने का आश्वासन दिया है, लेकिन समय मांगा है। इस कार्रवाई ने शहर में तनाव बढ़ा दिया है। कुछ लोग इसे जायज ठहराते हैं और कहते हैं कि धार्मिक भावनाओं का सम्मान जरूरी है। वहीं, कुछ इसे अनावश्यक तूल देना मानते हैं। एक स्थानीय दुकानदार ने कहा, “नामों से क्या फर्क पड़ता है? बैंड बाजा तो खुशियां बांटता है, धर्म नहीं।” लेकिन दूसरी तरफ, कुछ लोग इसे पहचान छिपाने की साजिश बताते हैं।




ये विवाद कोई नया नहीं है। कुछ महीने पहले कांवड़ यात्रा के दौरान उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में दुकानों और ढाबों को मालिकों के नाम प्रदर्शित करने के निर्देश दिए गए थे। वहां भी मुद्दा यही था कि हिंदू-जैसे नामों वाले ढाबे अगर मुस्लिम मालिक चला रहे हैं, तो ये भ्रम पैदा करता है। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे आदेशों पर रोक लगाई, लेकिन मुरादाबाद का ताजा मामला फिर से वही बहस छेड़ रहा है। सवाल ये है कि क्या कोई व्यवसायी दूसरे धर्म के नाम या प्रतीकों का इस्तेमाल कर सकता है? और अगर हां, तो क्या ये गैरकानूनी है?कानून की नजर में देखें तो ट्रेड मार्क्स एक्ट 1999 में साफ प्रावधान हैं। अगर कोई नाम या मार्क उपभोक्ता को धोखा देता है, भ्रमित करता है या धार्मिक भावनाएं आहत करता है, तो उसे ट्रेड मार्क के तौर पर मान्यता नहीं मिल सकती। अगर ऐसा कोई नाम पहले से रजिस्टर्ड है और बाद में विवाद होता है, तो उसे रद्द भी किया जा सकता है। मुरादाबाद में शिकायतकर्ता इसी आधार पर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। कुछ हिंदू संगठन इसे व्यवसाय पर कब्जे की कोशिश से जोड़ रहे हैं। लेकिन बैंड मालिकों का पक्ष भी सुनना जरूरी है। कई मालिकों का कहना है कि वे दशकों से ये नाम इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि उनके ज्यादातर ग्राहक हिंदू समुदाय से हैं। एक मालिक ने कहा, “हमारा मकसद धोखा देना नहीं, बल्कि रोजी-रोटी कमाना है। हिंदू-जैसे नाम से ग्राहक ज्यादा आकर्षित होते हैं। नाम बदलने से हमारा कारोबार डूब सकता है, खासकर शादी के सीजन में।




बैंड बाजे का इतिहास भी कम दिलचस्प नहीं। आज हम जिसे बैंड बाजा कहते हैं, वो पश्चिमी ब्रास बैंड की देन है। भारत में इसकी शुरुआत 18वीं और 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश सेना के सैन्य बैंड से हुई। महाराजा रणजीत सिंह पहले भारतीय शासक थे, जिनके दरबार में बैंड बजा। 1880 से 1900 के बीच स्थानीय बैंड बनने लगे, जो लोकगीत और धुनें बजाते थे। 1920-30 के दशक में ये शादियों और बारातों का हिस्सा बने। उससे पहले ढोल, ताशे और नगाड़े बजते थे, जिन्हें ढोली, लंगा, मिरासी, कलंदर और नट जैसे वर्ग बजाते थे। 16वीं-17वीं शताब्दी में इनमें से कई ने इस्लाम अपनाया, यानी ढोल वादकों में हिंदू और मुस्लिम दोनों थे। संगीत की ये परंपरा कभी धर्म की दीवारों में नहीं बंटी।तो फिर आज ये बवाल क्यों? शायद समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण की वजह से। मुरादाबाद जैसे शहर, जहां हिंदू-मुस्लिम आबादी मिश्रित है, वहां छोटी बातें आसानी से सांप्रदायिक रंग ले लेती हैं। कुछ संगठन इसे बैंड बाजे के बाजार पर कब्जे की साजिश बता रहे हैं। लेकिन आंकड़े कुछ और कहते हैं। 2024 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर साल करीब 1 करोड़ शादियां होती हैं। शादी का पूरा कारोबार 7 लाख करोड़ रुपये का है, जिसमें बैंड बाजे का हिस्सा 8 फीसदी यानी 56 हजार करोड़ रुपये है। देशभर में 7 हजार से ज्यादा बैंड हैं, जो लाखों लोगों को रोजगार देते हैं। ये असंगठित क्षेत्र है, लेकिन इसका प्रभाव बड़ा है। बॉलीवुड में ‘बैंड बाजा बारात’ जैसी फिल्में बनीं, जो इसकी लोकप्रियता दिखाती हैं।

लेकिन आज यही बैंड बाजा विवादों में फंस गया है। पुलिस की कार्रवाई से बैंड के बोर्ड बदल रहे हैं। ‘अशोक बैंड’ पर हाजी अनीस का नाम, ‘रवि बैंड’ पर हनीफ का और ‘मिलन बैंड’ पर मोनू उर्फ इरफान का नाम अब हटेगा। लेकिन सवाल बरकरार हैं- क्या ये बदलाव शांति लाएगा? या समाज में नई दरारें पैदा करेगा? कुछ लोग इसे धार्मिक संवेदनशीलता का मामला बताते हैं, तो कुछ इसे व्यवसाय को निशाना बनाने की कोशिश कहते हैं। एक स्थानीय निवासी ने कहा, बैंड बाजा तो संगीत की भाषा बोलता है, जो हिंदू-मुस्लिम नहीं देखता। इसे विवाद में क्यों घसीटा जा रहा है?मुरादाबाद का ये विवाद एक सबक है। संगीत की धुनें हमेशा से दीवारें तोड़ती आई हैं। चाहे राजा-महाराजाओं के दरबार हों या आज की बारातें, बैंड बाजा खुशियों का प्रतीक रहा है। लेकिन आज ये सांप्रदायिक तनाव की चपेट में है। समाज को सोचना होगा कि क्या खुशियों की इस धुन को विवाद में उलझाना ठीक है? या फिर हमें उस साझी विरासत को सहेजना चाहिए, जो संगीत के जरिए सदियों से चली आ रही है। मुरादाबाद की गलियों में बैंड की धुनें फिर से गूंजेंगी, लेकिन सवाल ये है कि क्या वो पहले जैसी बेरोकटोक खुशियां बांट पाएंगी? ये वक्त एकजुट होने का है, न कि बंटने का।



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