उत्तर प्रदेश की सियासत देश की राजनीति का आईना रही है, और इसकी धड़कनें हमेशा राष्ट्रीय स्तर पर गूंजती हैं। जैसे-जैसे 2027 का विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहा है, बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने अपनी रणनीति को नई धार दी है। मायावती, जिन्हें सियासत की ‘आयरन लेडी’ कहा जाता है, एक बार फिर अपने सामाजिक गठजोड़ दलित, मुस्लिम और पिछड़े वर्गों के सहारे सत्ता की दौड़ में शामिल होने की जुगत में हैं। यह गठजोड़ हाल के लोकसभा चुनावों में भी आजमाया गया था, लेकिन अब इसे और परिष्कृत और जमीनी स्तर पर लागू किया जा रहा है। बीएसपी की इस रणनीति का गहन विश्लेषण न केवल उसके सियासी भविष्य को समझने के लिए जरूरी है, बल्कि यह उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीतिक गतिशीलता को भी उजागर करता है।
बीएसपी की रणनीति का मूल मंत्र उसका सामाजिक समीकरण है, जो दलित (लगभग 21% मतदाता), मुस्लिम (19%), और गैर-यादव पिछड़े वर्गों (लगभग 30%) को एकजुट करने पर टिका है। यह गठजोड़ 2007 के उस दलित-ब्राह्मण समीकरण का नया अवतार है, जिसने बीएसपी को 206 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत दिलाया था। लेकिन वर्तमान सियासी परिदृश्य में इस समीकरण को लागू करना आसान नहीं। दलित वोटों में जाटव समुदाय (लगभग 12%) बीएसपी का मजबूत आधार रहा है, लेकिन गैर-जाटव दलितों (जैसे पासी, वाल्मीकि) में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और समाजवादी पार्टी (सपा) की पैठ बढ़ी है। बीजेपी ने अपनी कल्याणकारी योजनाओं—जैसे उज्ज्वला, आयुष्मान भारत, और पीएम आवास—के जरिए गैर-जाटव दलितों को लुभाया है, जबकि सपा का ‘पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक’ (पीडीए) फॉर्मूला मुस्लिम और गैर-यादव ओबीसी वोटों को अपने पाले में खींच रहा है। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 32% वोट शेयर हासिल किया, जबकि बीएसपी का वोट शेयर 12.88% तक सिमट गया। यह आंकड़ा बीएसपी के सामने मौजूद चुनौती की गंभीरता को दर्शाता है।
लखनऊ, जो उत्तर प्रदेश की सियासी और प्रशासनिक राजधानी है, बीएसपी की रणनीति का केंद्रबिंदु बन रहा है। यहां संयोजकों की नियुक्ति में सामाजिक संतुलन को प्राथमिकता दी गई है। आधे संयोजक मुस्लिम समुदाय से हैं, जो पार्टी की मुस्लिम मतदाताओं तक पहुंचने की रणनीति को स्पष्ट करता है। 2017 और 2022 के चुनावों में मुस्लिम वोटों का बड़ा हिस्सा सपा की ओर गया, जिसने बीएसपी को भारी नुकसान पहुंचाया। 2024 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने 80 में से 22 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जो कुल उम्मीदवारों का 27.5% था। हालांकि, अपेक्षित सफलता नहीं मिली, लेकिन यह प्रयास मुस्लिम वोटरों को लुभाने की दिशा में एक बड़ा कदम था। अब लखनऊ जैसे शहरी और मिश्रित मतदाता क्षेत्रों में मुस्लिम नेताओं को संगठन में प्रमुखता देकर बीएसपी सपा के इस वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। साथ ही, गैर-यादव ओबीसी (जैसे कुर्मी, मौर्य, निषाद) और गैर-जाटव दलित नेताओं को जिम्मेदारी देकर सामाजिक समीकरण को और मजबूती दी जा रही है। यह रणनीति केवल प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि एक गणनात्मक कदम है, जो लखनऊ जैसे क्षेत्रों में बीएसपी की चुनावी संभावनाओं को बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
मायावती की रणनीति में सबसे उल्लेखनीय बदलाव उनकी बढ़ती सक्रियता और संगठनात्मक पुनर्गठन में दिखता है। पहले वह मुख्य रूप से प्रेस कॉन्फ्रेंस और सोशल मीडिया तक सीमित रहती थीं, लेकिन अब वह नियमित रूप से संगठनात्मक बैठकों में हिस्सा ले रही हैं। प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल के नेतृत्व में बीएसपी ने सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों में कैडर कैंप शुरू किए हैं। ये कैंप कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों—जैसे बेरोजगारी, महंगाई, और सामाजिक अन्याय—को उठाकर जनता से सीधा जुड़ाव बना रहे हैं। गूगल न्यूज़ के हालिया रुझानों के अनुसार, बीएसपी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों जैसे सहारनपुर, मुरादाबाद, और बिजनौर में मुस्लिम-दलित केंद्रित जागरूकता अभियान तेज किए हैं, जहां मुस्लिम मतदाता (25-30% तक) निर्णायक भूमिका निभाते हैं। ये अभियान न केवल वोटरों को संगठित कर रहे हैं, बल्कि बीजेपी की ‘जातिवादी’ और सपा की ‘अवसरवादी’ छवि को निशाना बनाकर एक वैचारिक जंग भी छेड़ रहे हैं।
आकाश आनंद और ईशान आनंद जैसे युवा चेहरों का उभार बीएसपी की रणनीति को नया आयाम दे रहा है। आकाश, जो मायावती के भतीजे और पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक हैं, युवा मतदाताओं (18-25 आयु वर्ग, जो यूपी में 20% से अधिक हैं) को आकर्षित करने में जुटे हैं। उनकी छोटी-छोटी चौपालें और सोशल मीडिया पर सक्रियता बीएसपी को डिजिटल युग में प्रासंगिक बनाए रख रही है। उदाहरण के लिए, हाल ही में आकाश ने मेरठ में एक चौपाल में बीजेपी की कथित ‘दलित विरोधी’ नीतियों पर हमला बोला, जिसे सोशल मीडिया पर व्यापक समर्थन मिला। यह पोस्ट ट्विटर पर 50,000 से अधिक बार देखी गई, जो बीएसपी की डिजिटल रणनीति की ताकत को दर्शाता है। ईशान आनंद का संगठन में शामिल होना भी युवा नेतृत्व को बढ़ावा देने की दिशा में एक कदम है। यह रणनीति उस समय और महत्वपूर्ण हो जाती है, जब बीजेपी और सपा भी सोशल मीडिया और युवा केंद्रित अभियानों पर जोर दे रही हैं।
बीएसपी की राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी केवल एक सीट जीत पाई, और हाल के उपचुनावों में भी उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा। गैर-जाटव दलितों में बीजेपी की पैठ बढ़ी है, जो अपनी योजनाओं और हिंदुत्व के एजेंडे के जरिए इन वोटरों को लुभा रही है। सपा का पीडीए फॉर्मूला मुस्लिम और गैर-यादव ओबीसी वोटों को मजबूती से अपने पाले में रख रहा है। इसके अलावा, चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी (एएसपी) गैर-जाटव दलितों और युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रही है। 2022 में एएसपी ने 0.9% वोट शेयर हासिल किया, जो भले ही छोटा लगे, लेकिन गैर-जाटव दलितों में इसकी बढ़ती पैठ बीएसपी के लिए खतरा है। गूगल न्यूज़ के विश्लेषण के अनुसार, एएसपी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी की कुछ सीटों पर बीएसपी के वोट बैंक में सेंध लगाई, जिससे मायावती के सामने नई चुनौती खड़ी हुई है।
मायावती ने इन चुनौतियों का जवाब अपनी सोशल मीडिया रणनीति से भी दिया है। हाल ही में उन्होंने 1995 के गेस्ट हाउस कांड का जिक्र कर सपा पर निशाना साधा, जिससे उनके समर्थकों में भावनात्मक जुड़ाव बढ़ा। यह बयान ट्विटर पर 1 लाख से अधिक बार देखा गया, जो बीएसपी की डिजिटल रणनीति की प्रभावशीलता को दर्शाता है। पार्टी का दावा है कि वह दलित, मुस्लिम, और पिछड़े वर्गों के हितों की सबसे बड़ी पैरोकार है, और यह संदेश सोशल मीडिया के जरिए तेजी से फैलाया जा रहा है।
2027 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह अपने सामाजिक गठजोड़ को कितनी कुशलता से लागू करती है। लखनऊ में संयोजकों की नियुक्ति, जागरूकता अभियान, और युवा नेतृत्व का उभार यह दर्शाता है कि मायावती अपनी रणनीति को परिष्कृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। लेकिन कुछ सवाल अनुत्तरित हैं। क्या बीएसपी गैर-जाटव दलित और मुस्लिम वोटरों को सपा से वापस खींच पाएगी? क्या गैर-यादव ओबीसी वोटर, जो बीजेपी और सपा के बीच बंटे हैं, बीएसपी की ओर आएंगे? और सबसे अहम, क्या मायावती का यह गठजोड़ सपा के पीडीए और बीजेपी के हिंदुत्व को टक्कर दे पाएगा? मायावती का इतिहास बताता है कि वह असंभव को संभव बनाने में माहिर हैं। 2027 का यूपी एक नया सियासी मैदान है, जहां डिजिटल प्रचार, युवा मतदाता, और क्षेत्रीय मुद्दे निर्णायक होंगे। बीएसपी की यह नई जंग न केवल उसके भविष्य को तय करेगी, बल्कि उत्तर प्रदेश की सियासत की दिशा भी बदलेगी।