
लखनऊ की गलियों में होली की धूम हमेशा से खास रही है। यह केवल रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक अनूठी मिसाल है। अवध की धरती पर नवाबों ने इस पर्व को न सिर्फ अपनाया बल्कि इसे अपनी संस्कृति में इस तरह समाहित कर लिया कि हिंदू-मुस्लिम एकता की एक बेमिसाल झलक देखने को मिली। नवाबों की होली सिर्फ रंग-गुलाल तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें संगीत, नृत्य, नाटक और शायरी का भी मेल था। अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह को होली का बहुत शौक था। उनके दरबार में होली का उत्सव हफ्तों चलता था। वे स्वयं श्रीकृष्ण का रूप धरते और उनकी बेगमें गोपियां बनतीं। महल में गुलाल उड़ता, टेसू के फूलों से रंग बनाए जाते और संगीत की महफिलें सजतीं। चौथे नवाब आसफउद्दौला के समय भी होली की बड़ी धूम थी। कहा जाता है कि वे इस त्योहार पर लाखों रुपये खर्च करते थे। होली के दौरान महल में विशेष आयोजन होते, जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते। बेगमें अंग्रेजों की पोशाक पहनतीं और नवाबों के दरबार में होली का एक अलग ही रूप नजर आता।
होली का रंग अवध के हर गली-मोहल्ले में भी देखने को मिलता था। नवाबी दौर में चौक, अमीनाबाद और हजरतगंज की गलियां रंगों से सराबोर हो जाती थीं। लखनऊ की मशहूर होली बारात का आयोजन भी इसी दौर में शुरू हुआ, जो आज तक जारी है। इसमें हाथी, घोड़े और ऊंटों की सवारी के साथ लोग निकलते हैं और गुलाल उड़ाते हैं। यह केवल एक जुलूस नहीं, बल्कि लखनऊ की संस्कृति का प्रतीक बन चुका है। नवाबों के दरबार में उस समय के बड़े शायर भी होली के रंग में रंगे नजर आते थे। मीर तकी मीर, नजीर अकबराबादी और मोमिन जैसे शायरों ने होली पर बेहतरीन शेर कहे हैं। नजीर अकबराबादी ने लिखा था – “फागुन की मस्ती छाई है, हर गली में होली आई है।” यह बताता है कि कैसे उस समय होली केवल हिंदुओं का ही नहीं, बल्कि सभी का त्योहार बन चुका था।
होली से जुड़ी दिलचस्प कहानियां भी कम नहीं हैं। इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि नवाब वाजिद अली शाह के महल में होली खेलने के लिए विशेष रंग तैयार किए जाते थे। गुलाल चांदी की प्लेटों में रखा जाता और बेगमें नवाब के साथ होली खेलने के लिए विशेष पोशाक पहनतीं। अवध के छठे नवाब सआदत अली खां भी होली के आयोजन करवाते थे। उस समय टेसू के फूलों को उबालकर रंग बनाया जाता था, जिससे किसी को कोई हानि न हो। नवाबी दौर की होली की एक और खासियत यह थी कि इसमें संगीत और नृत्य का विशेष महत्व था। होली के दौरान ठुमरी, दादरा और अन्य पारंपरिक गीतों की महफिलें जमती थीं। कहा जाता है कि नवाब वाजिद अली शाह स्वयं नृत्य करने में माहिर थे और वे होली के समय विशेष नृत्य प्रस्तुत करते थे।
लखनऊ की होली सिर्फ नवाबों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि आम जनता भी इसे पूरे जोश के साथ मनाती थी। पुराने लखनऊ में होली खेलने के अनोखे अंदाज थे। लोग पहले तालाब की मिट्टी से खेलते, फिर रंगों की होली शुरू होती। एक समय था जब लोग बैलगाड़ी, हाथी और घोड़ों पर बैठकर होली खेलने निकलते थे। गलियों में ढोल-नगाड़े बजते और लोग बांसुरी की धुन पर झूमते। पुराने जमाने में होली केवल रंगों तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें नाटक, नृत्य और गायन का भी महत्वपूर्ण स्थान था। राजा बाजार के पास बाग मक्का में विशेष सांस्कृतिक आयोजन होते थे, जहां नाटक और गीत-संगीत की महफिलें सजती थीं। यहां कई लोग अपनी कला का प्रदर्शन करते और इस दौरान कई प्रेम कहानियां भी जन्म लेतीं। एक किस्सा मशहूर रंगकर्मी अनिल रस्तोगी का है, जिन्होंने बताया कि होली के दौरान उन्होंने एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में सुधा नाम की लड़की को देखा और बाद में दोनों ने शादी कर ली।
होली से जुड़ी शरारतों के किस्से भी खूब मशहूर हैं। हास्य कवि सूर्यकुमार पांडेय बताते हैं कि जब वे आठवीं कक्षा में थे, तो होली खेलने के दौरान दोस्तों के साथ इतने दूर निकल गए कि घर का रास्ता ही भूल गए। आईटी कॉलेज के पास रास्ता पूछने लगे, लेकिन ज्यादातर लोग भंग के नशे में थे और किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया। अंततः उनके बड़े भाइयों ने उन्हें ढूंढ निकाला। इसी तरह, कृषि विभाग में कार्यरत रतन कुमार रतन की एक शरारत भी काफी मशहूर हुई। उनके गांव में चप्पू चाचा नाम के एक व्यक्ति थे, जो अपने घने, काले बालों को लेकर बहुत सजग रहते थे। होली के दिन उनकी टोली ने चप्पू चाचा के सिर पर केले के तने का रस डाल दिया। अगली सुबह उनके बाल सफेद हो गए और पूरा गांव हंसते-हंसते लोटपोट हो गया।
इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि उन्होंने 1970 के आसपास एक बार गलती से भांग पी ली थी, जिससे उनकी तबीयत इतनी खराब हुई कि उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। रास्ते में उन्हें इतनी प्यास लगी कि उन्होंने घोड़ों के लिए रखे गए पानी को ही पी लिया। जब उनके पिताजी अस्पताल पहुंचे, तो डॉक्टर ने कहा कि जब ये ठीक हो जाएं, तो इन्हें दो थप्पड़ जरूर मारिएगा। इसके बाद उन्होंने कभी भांग को हाथ नहीं लगाया।
आज के समय में होली का स्वरूप काफी बदल गया है। पहले जहां लोग पूरे दिल से इस त्योहार में शामिल होते थे, वहीं अब सोशल मीडिया और मोबाइल ने त्योहार की रंगत को थोड़ा फीका कर दिया है। पहले लोग महीने भर पहले से तैयारियां शुरू कर देते थे, लेकिन अब होली सिर्फ रील्स और फोटोज तक सीमित रह गई है। अब डिजिटल प्लेटफॉर्म पर वर्चुअल होली मनाने का चलन बढ़ रहा है। ऑनलाइन ग्रीटिंग्स और डिजिटल रंगों ने पारंपरिक होली को कहीं न कहीं प्रभावित किया है। हालांकि, आज भी लखनऊ में कुछ स्थानों पर पारंपरिक होली का आयोजन किया जाता है, जहां लोग अपने परिवार और दोस्तों के साथ मिलकर गुलाल उड़ाते हैं।
लखनऊ की होली आज भी अपने नवाबी अंदाज के लिए मशहूर है। यहां की गलियों में आज भी गुलाल उड़ता है, लोग अबीर-गुलाल से एक-दूसरे को रंगते हैं और संगीत की महफिलें सजती हैं। समय भले ही बदल गया हो, लेकिन होली की रंगीन परंपरा आज भी कायम है। नवाबों के दौर से चली आ रही यह परंपरा आज भी लखनऊ की पहचान है। चाहे समय कितना भी बदल जाए, लेकिन लखनऊ की होली का रंग कभी फीका नहीं पड़ेगा।