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भारत के उप राष्ट्रपति द्वारा हाल ही में न्यायपालिका पर दिए गए बयान ने देश की संवैधानिक संस्थाओं के बीच संतुलन, मर्यादा और सीमाओं को लेकर एक बार फिर बहस को जन्म दिया है। यह बयान भारतीय लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच भूमिकाओं की स्पष्टता और उनके आपसी संबंधों की समीक्षा के संदर्भ में आया है। उप राष्ट्रपति का बयान कितना तर्कसंगत है और इसके क्या संभावित सामाजिक, राजनीतिक व संवैधानिक प्रभाव हो सकते हैं।यह गहन चिंतन का विषय है। उप राष्ट्रपति ने एक सार्वजनिक मंच से कहा था कि न्यायपालिका को नीति निर्माण में अत्यधिक हस्तक्षेप से बचना चाहिए और केवल संविधान की व्याख्या तक ही सीमित रहना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ मामलों में न्यायपालिका सक्रियता के नाम पर विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों में हस्तक्षेप कर रही है, जिससे सत्ता के पृथक्करण के सिद्धांत पर प्रश्न खड़े होते हैं।
दरअसल,भारत में न्यायिक सक्रियता पिछले कुछ दशकों में एक प्रमुख विषय बनकर उभरी है। विशेषकर जब विधायिका या कार्यपालिका किसी मुद्दे पर निष्क्रिय रहती है, तब न्यायपालिका हस्तक्षेप कर जनता के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है। हालाँकि, जब यह हस्तक्षेप नीति निर्माण की सीमा तक पहुँचने लगे, तब यह संविधान के सत्ता पृथक्करण के सिद्धांत से टकरा सकता है। उप राष्ट्रपति का बयान इसी संवेदनशील सीमा की ओर ध्यान आकर्षित करता है। उप राष्ट्रपति का यह कहना कि न्यायपालिका को संविधान के अनुरूप कार्य करना चाहिए, बिल्कुल तर्कसंगत है। संविधान स्पष्ट रूप से न्यायपालिका की भूमिका को न्याय वितरण और मौलिक अधिकारों की रक्षा तक सीमित करता है। नीति निर्माण का कार्य निर्वाचित प्रतिनिधियों की विधायिका और कार्यपालिका के पास है।
न्यायपालिका की नियुक्ति प्रक्रिया में जनप्रतिनिधित्व का अभाव रहता है, जबकि विधायिका सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है। इसलिए जब न्यायपालिका नीति निर्धारण करने लगती है, तब यह लोकतांत्रिक जवाबदेही की दृष्टि से एक असंतुलन पैदा कर सकती है। न्यायपालिका द्वारा कई बार सरकार की योजनाओं पर रोक लगाने, पर्यावरण नियमों में कठोर हस्तक्षेप करने या नए दिशा-निर्देश जारी करने जैसी घटनाएँ हुई हैं। जैसे कि दिल्ली में पटाखों पर बैन, किसानों से जुड़े कानूनों पर सुनवाई, या कॉलेजियम प्रणाली के जरिए न्यायाधीशों की नियुक्तिकृइन सभी ने न्यायपालिका की भूमिका को लेकर सवाल उठाए हैं। हालांकि, यह भी उतना ही सच है कि कई बार न्यायपालिका को इसलिए हस्तक्षेप करना पड़ता है क्योंकि विधायिका या कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करती। उदाहरण के तौर पर, पर्यावरण से जुड़े मामलों, मानवाधिकारों की रक्षा, या भ्रष्टाचार के खिलाफ मामलों में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका ने आम जनता को राहत पहुँचाई है।
गौरतलब है भारत के संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट रूप से सत्ता के पृथक्करण की बात की है, जहाँ तीनों अंग स्वतंत्र हैं लेकिन एक-दूसरे पर निगरानी बनाए रखते हैं। इस त्रिकोणीय संतुलन को बनाए रखना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। उप राष्ट्रपति का बयान इसी संतुलन की पुनः स्थापना की अपील करता है। यदि न्यायपालिका निरंतर नीति निर्माण में हस्तक्षेप करती है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर कर सकता है। राष्ट्रपति के इस बयान से सार्वजनिक विमर्श को बल मिला है कि सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपनी सीमाओं का पालन करना चाहिएं। इस तरह के बयान कभी-कभी यह संकेत भी देते हैं कि कार्यपालिका न्यायपालिका की स्वायत्तता को सीमित करना चाहती है। इसलिए न्यायपालिका को सजग रहते हुए अपनी भूमिका को परिभाषित करना होगा। जब दो संवैधानिक संस्थाएँ आमने-सामने आती हैं, तो जनता भ्रमित हो सकती है। अतः संवाद और संतुलन बनाना आवश्यक है।
लब्बोलुआब यह है कि उप राष्ट्रपति द्वारा न्यायपालिका पर दिया गया बयान कई मायनों में तर्कसंगत, संवैधानिक और आवश्यक संवाद का एक हिस्सा है। यह लोकतंत्र में शक्ति संतुलन की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित करता है। हालांकि, यह जरूरी है कि इस तरह के बयानों को आलोचना या टकराव के रूप में न लेकर, संवाद और समन्वय के माध्यम से एक सकारात्मक दिशा में बढ़ा जाए। न्यायपालिका को अपनी सक्रियता में संतुलन बनाना होगा, वहीं विधायिका और कार्यपालिका को भी अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी होंगी ताकि न्यायपालिका को हस्तक्षेप की आवश्यकता न पड़े। इस प्रकार, उप राष्ट्रपति का बयान संविधान की भावना के अनुरूप है, बशर्ते इसे एक आलोचना नहीं बल्कि चेतावनी और संवाद के रूप में देखा जाए।