जातीय जनगणनाः कोरी राजनीति या सामाजिक न्याय का पहला कदम

 

  संजय सक्सेना       वरिष्ठ पत्रकार

मोदी सरकार द्वारा देश में जातीय जनगणना के ऐलान ने भारतीय राजनीति के भीतर एक नई हलचल पैदा कर दी है। यह फैसला न केवल विपक्ष के सबसे प्रभावशाली मुद्दे को अप्रासंगिक करता है, बल्कि भाजपा की आगामी चुनावों को लेकर रणनीतिक सतर्कता को भी दर्शाता है। खासकर उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से निर्णायक राज्य में, यह कदम आगामी 2027 विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र बेहद अहम माना जा रहा है।

राजनीतिक ज़मीन की लड़ाई  2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़े वर्ग के वोटों से आंशिक नुकसान हुआ। समाजवादी पार्टी ने ष्पीडीएष् (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) और ष्संविधान बचाओष् जैसे नारों के साथ सामाजिक न्याय का एजेंडा मजबूती से आगे बढ़ाया,  जिससे भाजपा की पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगती दिखी। आरएसएस की चिंतन बैठकों में भी यह चिंता जाहिर की गई थी कि अगर पिछड़ा और दलित वर्ग पार्टी से दूर होता गया, तो भाजपा के लिए 2027 में स्थिति चुनौतीपूर्ण हो सकती है।

कूटनीति और सहयोगी दलों की संतुष्टि

भाजपा के इस फैसले के पीछे सिर्फ विपक्षी दबाव नहीं, बल्कि सहयोगी दलों का भी बड़ा योगदान रहा है। अनुप्रिया पटेल, संजय निषाद, ओमप्रकाश राजभर जैसे सहयोगी नेता लंबे समय से जातीय जनगणना की मांग करते आ रहे थे। भाजपा के लिए यह आवश्यक हो गया था कि सहयोगी दलों की मांगों को समय रहते स्वीकार किया जाए, ताकि चुनावी गठबंधन में दरार न आए।

बसपा की गिरती पकड़ और दलित वोट बैंक

एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि बसपा की कमजोर होती राजनीतिक ताकत ने भाजपा को दलित वोट बैंक को साधने का अवसर दिया है। मायावती के नेतृत्व में बसपा की निष्क्रियता और सामाजिक मुद्दों पर कमजोर उपस्थिति ने दलित वोटरों को नए विकल्प तलाशने के लिए मजबूर किया है। भाजपा इस वर्ग में अपनी पैठ मजबूत करने के लिए अपने दलित नेताओं को आगे कर रही है और उन्हें सपा-कांग्रेस की आलोचना का जिम्मा सौंप रही है।

सामाजिक न्याय बनाम सियासी गणित

हालांकि जातीय जनगणना को सामाजिक न्याय की दिशा में एक प्रगतिशील कदम के रूप में भी देखा जा सकता है, लेकिन इसका राजनीतिक उपयोग साफ तौर पर दिखाई दे रहा है। सवाल यह है कि क्या यह केवल एक चुनावी हथियार है या सरकार वास्तव में जातिगत आंकड़ों के आधार पर नीतिगत फैसले लेने की दिशा में आगे बढ़ेगी? यदि यह आंकड़े केवल राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग किए गए, तो इससे सामाजिक समरसता पर विपरीत असर पड़ सकता है।

कुल मिलाकर जातीय जनगणना का ऐलान विपक्ष के लिए एक बड़ा झटका है, पर इससे भाजपा पर जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है। अब उसे यह साबित करना होगा कि यह निर्णय केवल चुनावी रणनीति नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग को न्याय दिलाने की गंभीर पहल है। आने वाले महीनों में भाजपा की नीतियां और उनकी कार्यान्वयन प्रक्रिया यह तय करेंगी कि पिछड़ा और दलित वर्ग इस फैसले को किस रूप में स्वीकार करता है ।

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