अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जैसे ही भारत पर 50 फीसदी टैरिफ लगाने का ऐलान किया, वैश्विक राजनीति में हलचल मच गई। आरोप यह कि भारत रूस से तेल खरीदकर भारी मुनाफा कमा रहा है और इससे रूस को फायदा हो रहा है। लेकिन भारत ने जिस अंदाज़ में जवाब दिया, उसने न केवल वॉशिंगटन बल्कि यूरोप के गलियारों में भी सनसनी फैला दी। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दो टूक कहा“अगर आपको भारत से रिफाइंड तेल या उत्पाद खरीदने में समस्या है, तो मत खरीदिए। कोई आपको मजबूर नहीं करता।” उनका यह बयान अब सिर्फ़ एक टिप्पणी नहीं, बल्कि भारत की आत्मनिर्भर और बेबाक विदेश नीति का घोषणापत्र बन गया है।ट्रंप प्रशासन ने टैरिफ को दोगुना कर 50 प्रतिशत कर दिया। पहले ही 25 प्रतिशत टैरिफ लागू था, अब रूस से तेल खरीदने की सज़ा के तौर पर और 25 प्रतिशत जोड़े गए। सवाल यह कि चीन और यूरोपीय संघ पर यह सख़्ती क्यों नहीं? जबकि चीन रूस का सबसे बड़ा तेल ग्राहक है और यूरोप भी बड़ी मात्रा में ऊर्जा लेता है। ट्रंप सरकार ने इसका जो तर्क दिया, उसने भारत को और ज्यादा खड़ा कर दिया। अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने कहा“भारत ने युद्ध के दौरान रूस से तेल खरीदकर अरबों डॉलर का मुनाफा कमाया।” आंकड़े भी दिए गए कि 2022 से पहले भारत का रूसी तेल आयात कुल का 1% था, जो अब बढ़कर 42% हो गया। तुलना में चीन का हिस्सा 13% से 16% तक ही बढ़ा।
यहां सवाल उठता है कि अगर चीन पहले से रूस पर निर्भर था तो क्या भारत को दोष देना सही है? क्या किसी देश को अपनी ऊर्जा ज़रूरत पूरी करने और जनता के लिए सस्ता तेल खरीदने का हक़ नहीं? यही कारण है कि विदेश मंत्री जयशंकर ने यूरोप और अमेरिका दोनों को आईना दिखाया। उन्होंने कहा“यह मज़ाक है कि एक प्रो-बिज़नेस अमेरिकी प्रशासन दूसरों पर बिज़नेस करने का आरोप लगाए। यूरोप भी खरीद रहा है, अमेरिका भी खरीद रहा है। अगर आपको पसंद नहीं, तो न खरीदें।”ट्रंप के टैरिफ वॉर का असर भारत-अमेरिका रिश्तों पर साफ दिख रहा है। लेकिन जयशंकर ने माहौल को हल्का करते हुए कहा“कट्टी नहीं हुई है, बातचीत चल रही है।” दरअसल अमेरिका और भारत के बीच 190 अरब डॉलर से ज्यादा का व्यापार है। अप्रैल से अगस्त 2024-25 तक अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार रहा। रक्षा, तकनीक, आईटी और शिक्षा में दोनों देशों का सहयोग बढ़ा है। पर यही सहयोग अब टैरिफ के बोझ तले दबता दिख रहा है।
भारत की स्थिति साफ है। जयशंकर ने कहा“हमारे रेड लाइन्स बिल्कुल स्पष्ट हैं। किसानों और छोटे उत्पादकों के हितों से कोई समझौता नहीं होगा।” अमेरिका चाहता है कि भारत कृषि और डेयरी क्षेत्र को अपने बाज़ार के लिए खोले। लेकिन भारत के लिए यह संभव नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वतंत्रता दिवस भाषण में कहा था कि “भारत भारी कीमत चुकाने के लिए तैयार है, लेकिन किसानों के हितों पर समझौता नहीं होगा।”ट्रंप की नीति का एक और पहलू हैटैरिफ को हथियार की तरह इस्तेमाल करना। पर सवाल यह है कि जब चीन को छूट मिल सकती है तो भारत को क्यों नहीं? पीटर नवारो, जो ट्रंप के प्रमुख रणनीतिकार हैं, भारत पर लगातार हमले कर रहे हैं। कभी भारत को “टैरिफ का महाराजा” कहते हैं, तो कभी “क्रेमलिन का लॉन्ड्रोमैट”। उनका आरोप है कि भारत रूस से सस्ते तेल को खरीदकर रिफाइन करता है और उसे बेचकर रूस को यूक्रेन युद्ध में मदद कर रहा है। लेकिन यही नवारो कई बार प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ भी करते हैं और मानते हैं कि रूस-यूक्रेन के बीच शांति लाने में भारत अहम भूमिका निभा सकता है।
दरअसल, यह विरोधाभास अमेरिकी नीति की जटिलता को उजागर करता है। एक तरफ वे भारत को वैश्विक लोकतंत्र का साथी बताते हैं, दूसरी तरफ टैरिफ की मार से उसी को चोट पहुँचाते हैं। जयशंकर ने ठीक कहा कि “अमेरिकी अधिकारी पहले हमें खुद ही कह चुके हैं कि ऊर्जा बाजार को स्थिर करने के लिए रूस से तेल खरीदो। अब वही लोग हमें दोषी ठहरा रहे हैं। भारत ने भी इस पूरी स्थिति में अपने कूटनीतिक पत्ते बखूबी खेले हैं। हाल ही में रूस के साथ व्यापार बढ़ाने का फैसला किया गया है। फार्मा, कृषि और वस्त्रों में निर्यात बढ़ाने और कई बाधाओं को दूर करने पर सहमति बनी है। यह संदेश है कि भारत किसी भी दबाव में नहीं झुकेगा और राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखेगा।इसी बीच चीन के विदेश मंत्री वांग यी दिल्ली पहुंचे। दोनों देशों के बीच रिश्ते लंबे समय से तनावपूर्ण रहे हैं, खासकर सीमा विवाद के कारण। लेकिन ट्रंप की टैरिफ राजनीति ने हालात बदल दिए। भारत और चीन ने कहा कि उन्हें “बढ़ते दबाव और धमकियों” के बीच सहयोग मजबूत करना चाहिए। यह संदेश अमेरिका के लिए चिंता का कारण हो सकता है।
भारत की विदेश नीति का यही तो असली स्वरूप है रणनीतिक स्वायत्तता। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की परंपरा से निकला भारत आज भी यही कहता है कि न हम किसी के पिछलग्गू हैं, न किसी के मोहरे। जब अमेरिका ने कहा रूस से खरीदो, भारत ने खरीदा। जब उसी अमेरिका ने कहा कि ऐसा मत करो, भारत ने अपने हिसाब से फैसला किया। यही आत्मनिर्णय है जिसने भारत को वैश्विक मंच पर अलग पहचान दी है।भारत की मजबूती का एक और पहलू है आंकड़े। 2022 से पहले भारत रूस से तेल खरीदने वालों में लगभग नगण्य था। पर आज रूस भारत का सबसे बड़ा ऊर्जा आपूर्तिकर्ता है। इसने भारत की तेल सुरक्षा को मजबूत किया और महंगाई से बचाया। आम जनता को पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में राहत मिली। अमेरिका को यह रास नहीं आया क्योंकि इससे भारत ने 16 अरब डॉलर का अतिरिक्त मुनाफा भी कमाया। पर क्या मुनाफा कमाना गलत है? आखिर हर देश अपने नागरिकों की भलाई और अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए ही तो फैसले लेता है।
भारत ने यह भी स्पष्ट किया है कि वह अमेरिका से भी तेल खरीद रहा है और उस मात्रा में बढ़ोतरी हुई है। यानी भारत किसी एक पर निर्भर नहीं, बल्कि ऊर्जा स्रोतों में विविधता ला रहा है। यही वजह है कि भारत को निशाना बनाने की कोशिश तर्कहीन लगती है।ट्रंप की नीतियाँ केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए चुनौती बन रही हैं। वे टैरिफ को घरेलू राजनीति का औज़ार बना रहे हैं। अमेरिकी चुनावों से पहले “अमेरिका फर्स्ट” का नारा तेज़ किया जा रहा है। पर इस प्रक्रिया में उनके पारंपरिक सहयोगी देश ही नाराज़ हो रहे हैं। भारत उनमें सबसे बड़ा उदाहरण है।जयशंकर का बयान “अगर पसंद नहीं तो मत खरीदो” अब सिर्फ़ अमेरिका के लिए नहीं, बल्कि उन सभी देशों के लिए है जो भारत की संप्रभुता पर सवाल उठाते हैं। यह बयान उस नए भारत की तस्वीर है जो दबाव में नहीं झुकता। जो यह मानता है कि व्यापार, कूटनीति और ऊर्जा सबमें राष्ट्रीय हित सर्वोपरि है।
आज भारत अमेरिका, रूस और चीन तीनों के साथ तालमेल साध रहा है। रक्षा सौदे अमेरिका से, ऊर्जा रूस से और व्यापार चीन के साथ। यह संतुलन ही भारत की असली ताकत है। इसी वजह से वॉशिंगटन, मॉस्को और बीजिंग तीनों भारत की ओर देख रहे हैं। और इसी वजह से भारत की आवाज़ आज वैश्विक राजनीति में सबसे अलग और सबसे प्रभावी है।अमेरिकी टैरिफ का असर कितना होगा, यह आने वाला समय बताएगा। पर इतना साफ है कि भारत डरने वाला नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री जयशंकर ने यह संदेश स्पष्ट कर दिया है। भारत भारी कीमत चुकाने के लिए तैयार है, पर किसानों, छोटे उत्पादकों और राष्ट्रीय हितों पर समझौता नहीं करेगा। यही भारत की असली पहचान है और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत।