उत्तर प्रदेश और बिहार, भारत के दो प्रमुख हिंदी भाषी राज्य, लंबे समय से सामाजिक और राजनीतिक गतिशीलता के केंद्र रहे हैं। इन राज्यों में यादव समुदाय एक महत्वपूर्ण वोट बैंक के रूप में उभरा है, जिसने दशकों तक समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को मजबूती प्रदान की। हालांकि, हाल के वर्षों में, विशेष रूप से 2024 और 2025 के चुनावी परिदृश्य में, यह देखा गया है कि यादव वोटर इन पार्टियों से दूरी बना रहे हैं। इस बदलाव के पीछे कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं, जो क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर जटिल गतिशीलता को दर्शाते हैं।
उत्तर प्रदेश: समाजवादी पार्टी और यादव वोटरों का बदलता समीकरण
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, जिसका नेतृत्व अखिलेश यादव करते हैं, लंबे समय तक यादव समुदाय की पहली पसंद रही है। मुलायम सिंह यादव ने 1990 के दशक में सामाजिक न्याय और पिछड़े वर्गों के उत्थान के नारे के साथ इस समुदाय को एकजुट किया था। लेकिन हाल के वर्षों में, खासकर 2024 के लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों के बाद, सपा के प्रति यादव वोटरों का रुझान कम होता दिख रहा है।
पहला प्रमुख कारण है सपा का “मुस्लिम-यादव” (एम-वाई) फॉर्मूला, जिसे पार्टी ने लंबे समय तक अपनी ताकत माना। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में, अखिलेश यादव ने इस रणनीति में बदलाव करते हुए अधिक पिछड़े और दलित उम्मीदवारों को टिकट दिए, ताकि पार्टी को व्यापक सामाजिक आधार मिल सके। इस रणनीति ने यादव समुदाय के बीच यह धारणा बनाई कि उनकी अपनी पार्टी अब उनके हितों को उतना प्राथमिकता नहीं दे रही। इसके अलावा, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने संविधान और आरक्षण को खत्म करने के विपक्षी नैरेटिव का प्रभावी जवाब नहीं दिया, जिससे गैर-जाटव दलित और अन्य पिछड़े वर्ग सपा की ओर गए, लेकिन यादव वोटरों में असंतोष बढ़ा।
दूसरा, सपा का 2024 के उपचुनावों में खराब प्रदर्शन, जहां नौ में से केवल दो सीटें जीती गईं, ने भी यादव वोटरों का भरोसा डगमगाया। वरिष्ठ पत्रकारों के अनुसार, बसपा और अन्य छोटे दलों को मिले वोटों ने सपा के वोट बैंक को बिखेर दिया। इसके साथ ही, अखिलेश के नेतृत्व पर सवाल उठे, क्योंकि कुछ यादव मतदाताओं को लगता है कि वे अब केवल एक परिवार-केंद्रित पार्टी बनकर रह गए हैं, जो सामाजिक बदलाव की बजाय सत्ता की राजनीति पर केंद्रित है।आर्थिक मुद्दों ने भी इस दूरी को बढ़ाया। उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दे युवा यादव मतदाताओं को प्रभावित कर रहे हैं, जो अब भाजपा या अन्य क्षेत्रीय दलों की ओर देख रहे हैं, जो विकास और रोजगार के वादे अधिक आकर्षक ढंग से पेश करते हैं।
बिहार: राष्ट्रीय जनता दल और तेजस्वी की चुनौतियाँ
बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल भी यादव वोटरों के बीच अपनी पकड़ खोता दिख रहा है। लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में सामाजिक सशक्तीकरण और मंडल आंदोलन के जरिए यादवों को एकजुट किया था, लेकिन तेजस्वी के नेतृत्व में पार्टी नए युग की चुनौतियों का सामना करने में कमजोर पड़ रही है।
2025 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले, तेज प्रताप यादव का राजद से अलग होना और समाजवादी पार्टी के कार्यालय में उनकी मुलाकात ने सियासी हलचल मचा दी। तेज प्रताप ने अपनी नई राजनीतिक टीम “टीम तेज प्रताप” बनाई और महुआ सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ने की घोषणा की। यह घटना न केवल परिवार और पार्टी में दरार को दर्शाती है, बल्कि यादव वोटरों के बीच भी भ्रम पैदा करती है। तेज प्रताप का यह कदम कुछ यादव मतदाताओं के लिए संकेत है कि राजद अब एकजुट नहीं है, जिससे उनका विश्वास डगमगाया है।इसके अलावा, तेजस्वी की रणनीति पर भी सवाल उठ रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में राजद का प्रदर्शन अपेक्षाकृत कमजोर रहा, और पार्टी का ध्यान मुस्लिम और अन्य पिछड़े वर्गों पर अधिक केंद्रित होने से यादव मतदाताओं में यह भावना घर कर रही है कि उनकी अपनी पार्टी अब उनके हितों को पूरी तरह से प्रतिनिधित्व नहीं करती।
बिहार में भाजपा और जद(यू) गठबंधन ने भी यादव वोटरों को लुभाने के लिए सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर जोर दिया है। खासकर, ग्रामीण क्षेत्रों में विकास परियोजनाएँ और रोजगार के अवसरों ने युवा यादव मतदाताओं को आकर्षित किया है। तेजस्वी के नेतृत्व में राजद की छवि अब भी लालू युग की “जंगलराज” की छवि से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई है, जिसे विपक्षी दल प्रभावी ढंग से भुनाते हैं।बदलते सामाजिक समीकरण और भविष्य की संभावनाएयादव वोटरों का सपा और राजद से दूरी बनाने का एक बड़ा कारण सामाजिक गतिशीलता भी है। युवा यादव मतदाता अब परंपरागत जातिगत निष्ठाओं से परे रोजगार, शिक्षा और आर्थिक स्थिरता जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में शहरीकरण और शिक्षा के प्रसार ने इस समुदाय को अधिक जागरूक और महत्वाकांक्षी बनाया है, जो अब केवल जातिगत आधार पर वोट देने के बजाय नीतियों और परिणामों को देखता है।इसके अलावा, दोनों राज्यों में विपक्षी दलों, खासकर भाजपा, ने यादव समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए रणनीतिक कदम उठाए हैं। भाजपा ने गैर-यादव ओबीसी और दलित समुदायों के साथ गठजोड़ कर यादव वोटों को बिखेरने की कोशिश की है, जो कुछ हद तक सफल रही है।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और बिहार में तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल से यादव वोटरों की दूरी एक जटिल और बहुआयामी घटना है। यह दूरी केवल राजनीतिक रणनीतियों का परिणाम नहीं है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और क्षेत्रीय बदलावों का भी हिस्सा है। दोनों पार्टियों को अपने कोर वोट बैंक को फिर से जोड़ने के लिए न केवल जातिगत समीकरणों पर ध्यान देना होगा, बल्कि आधुनिक भारत के युवा और महत्वाकांक्षी मतदाताओं की आकांक्षाओं को भी समझना होगा। यदि ये पार्टियाँ समय के साथ कदम नहीं मिलातीं, तो यादव वोटरों का यह दूरी बनाना और अधिक गहरा सकता है, जो उनके लिए भविष्य में बड़ी चुनौती बन सकता है।