संजय सक्सेना
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में संविधान की धारा 142 पर टिप्पणी करते हुए इसे लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ न्यायपालिका के पास उपलब्ध परमाणु मिसाइल कहा। उनका यह बयान न्यायपालिका और विधायिका के बीच संतुलन को लेकर एक नई बहस को जन्म दे रहा है।धनखड़ का बयान ऐसे समय में आया था जब सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल ही नहीं राष्ट्रपति तक को निर्देश जारी कर दिया कि तीन महीने के भीतर वह अपने पास अनुमोदन के लिये आई फाइलों को मंजूरी दे दे। यदि उक्त ऐसा नहीं करते हैं तो ऐसी फाइलों को मंजूरी मिलना मान लिया जायेगा। इसी से धनखड़ साहब का गुस्सा सातवंे आसमान पर चढ़ गया। बता दें संविधान की धारा 142 उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार देती है कि वह किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक आदेशए निर्देश या निर्णय दे सके। यह धारा न्यायपालिका को व्यापक अधिकार देती हैए जिससे वह ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर सके जहाँ अन्य कानूनी उपाय पर्याप्त न हों।
धनखड़ का मानना है कि न्यायपालिका द्वारा धारा 142 का उपयोग कभी.कभी संसद द्वारा पारित कानूनों को निष्प्रभावी करने के लिए किया जाता है, जो लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। उन्होंने विशेष रूप से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयो के संदर्भ में कहा कि यदि इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द न किया गया होता तो न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में सुधार संभव था। धनखड़ के इस बयान पर कई वरिष्ठ अधिवक्ताओं और राजनीतिक नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। वरिष्ठ अधिवक्ता और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने इसे असंवैधानिक बताते हुए कहा कि सभापति को किसी राजनीतिक दल का प्रवक्ता नहीं बनना चाहिए। पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश अजय रस्तोगी ने भी धनखड़ के बयान से असहमति जताते हुए कहा कि धारा 142 का उपयोग पूरी तरह से न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है और इस पर कोई बहस नहीं होनी चाहिए।
धारा 142 पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की टिप्पणी ने न्यायपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के संतुलन पर एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है। जहाँ एक ओर यह धारा न्यायपालिका को पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक शक्तियाँ प्रदान करती हैए वहीं दूसरी ओर इसके उपयोग पर विधायिका की चिंताएँ भी सामने आ रही हैं। इस बहस का समाधान तभी संभव है जब दोनों संस्थाएँ पारस्परिक सम्मान और संवाद के माध्यम से संविधान के मूल्यों की रक्षा करें। वैसे धारा 142 का इस्तेमाल पहली बार 40 साल पूर्व किया गया था।
साल 1985 की बात है। दिल्ली की अदालतों में भीड़ भरी रहती थी, और लोगों को इंसाफ पाने में वर्षों लग जाते थे। उस समय, एक मामूली सा मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा केस एक फ्लैट के कब्जे को लेकर था। मामला छोटा था, लेकिन इसका असर बड़ा हुआ। इसी केस में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने धारा 142 का इस्तेमाल किया। तब यह कहा गया यह एक ऐसा संवैधानिक हथियार, जो न्यायपालिका को पूर्ण न्याय करने की ताकत देता है।
दरअसल, राजीव नाम का एक व्यक्ति दिल्ली में एक फ्लैट खरीदता है। लेकिन फ्लैट पर कब्जा एक अन्य व्यक्ति, सुनील, करके बैठा था। निचली अदालतों से लेकर हाई कोर्ट तक मामला चला, लेकिन कोई हल नहीं निकला। अंत में, मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। दोनों पक्षों के वकीलों ने कानूनी दाँव-पेंचों से अदालत को उलझा दिया। तब सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा “हमारे पास संविधान की धारा 142 है। इसके तहत हम ऐसा कोई भी आदेश दे सकते हैं, जो ‘पूर्ण न्याय’ के लिए आवश्यक हो।” अदालत ने फैसला सुनाया कि भले ही फ्लैट की कानूनी प्रक्रिया अधूरी रही हो, लेकिन इंसाफ यही है कि राजीव को उसका फ्लैट वापस मिले। आदेश जारी हुआ, और पहली बार देश ने देखा कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ कानून का याख्याता नहीं, बल्कि अंतिम न्याय का प्रहरी भी है।
इसी आधार पर कहा जाता है कि धारा 142 न्यायपालिका की ब्रह्मास्त्र है। भारतीय संविधान की धारा 142 कहती है “सुप्रीम कोर्ट ऐसा कोई आदेश, आदेश या निर्देश दे सकता है जो किसी भी वाद में पूर्ण न्याय के लिए आवश्यक हो।”इसका मतलब ये है कि अगर कानून में कोई कमी है, या कहीं तकनीकी बाधा है, फिर भी सुप्रीम कोर्ट न्याय करने से नहीं रुकता। धारा 142 के जरिए सुप्रीम कोर्ट को एक तरह से “संवैधानिक सुपरपावर” मिलती है। ये संसद या कार्यपालिका की सीमाओं को पार कर न्याय सुनिश्चित करने की क्षमता देती है।
धारा 142 से बने कानून
उन्नीकृष्णन केस (1993)-सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित किया। इसमें सरकार की नीतियों से ऊपर उठकर, बच्चों को शिक्षा देने का आदेश दिया गया। ये आदेश संविधान के अनुच्छेद 21 और धारा 142 के संयुक्त प्रयोग से आया।
विवाह को रद्द करने के अधिकार-कई बार पति-पत्नी आपसी सहमति से तलाक चाहते हैं लेकिन कानून में कुछ तकनीकी अड़चनें होती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 142 का इस्तेमाल करके ऐसे मामलों में शादी को रद्द कर पूर्ण न्याय दिया।
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद केस (2019)-एक ऐतिहासिक फैसला जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कई धार्मिक, कानूनी और भावनात्मक पहलुओं को संतुलित करते हुए फैसला सुनाया। इसमें भी धारा 142 का उपयोग करके मुस्लिम पक्ष को मस्जिद के लिए वैकल्पिक जमीन देने का आदेश दिया गया।
संजय दत्त केस (2013)-सुप्रीम कोर्ट ने सजा के पालन को सुनिश्चित करने के लिए 142 का प्रयोग किया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि अदालतें केवल सजा सुना कर नहीं, बल्कि उसे लागू कराने की ताक़त भी रखती हैं।
एक युवा वकील की कहानी-अनिरुद्ध, एक युवा वकील, जिसने अपनी पढ़ाई सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक फैसलों से प्रेरणा लेकर पूरी की थी, पहली बार एक जनहित याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। याचिका एक गाँव की बच्चियों की शिक्षा से जुड़ी थी, जहाँ स्कूल होने के बावजूद शिक्षक नहीं थे। सरकारी फाइलों में सब कुछ ठीक था,स्कूल था, शिक्षक थे, बजट था। लेकिन जमीनी हकीकत अलग थी। गाँव की बच्चियाँ रोज 5 किलोमीटर पैदल चलकर दूसरे गाँव जाती थीं। अनिरुद्ध ने कोर्ट से गुजारिश की “माई लॉर्ड्स, हम कानून के जाल में उलझ सकते हैं, लेकिन अगर शिक्षा मौलिक अधिकार है, तो इसे जमीन पर लागू करना भी सरकार की जिम्मेदारी है।” तब जज ने फैसला सुनाया “संविधान का अनुच्छेद 21।, धारा 142 के साथ मिलकर हमें ये आदेश देने की ताकत देता है कि राज्य सरकार 30 दिन के भीतर योग्य शिक्षकों की नियुक्ति करे। न्याय केवल आदेश से नहीं होता, उसके अमल से होता है।”
बहरहाल,धारा 142 पर कई बार सवाल भी उठते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह ज्यूडिशियल एक्टिविज्म का रास्ता खोलता है। क्या यह लोकतंत्र के संतुलन को बिगाड़ता है? अगर न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगे, तो लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में संघर्ष पैदा हो सकता है। लेकिन हर बार, सुप्रीम कोर्ट ने याद दिलाया “धारा 142 का उपयोग असाधारण परिस्थितियों में ही होगा, और केवल तभी जब न्याय अन्य तरीकों से संभव न हो।”
बीते साल 2024 में एक बड़ा फैसला आया, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने धारा 142 के इस्तेमाल से एक विवादित बिल को लागू करने के बजाय उसे सरकार को सुधारने के लिए वापस भेजा। कोर्ट ने कहा-“हम न्याय देने के लिए धारा 142 का उपयोग जरूर करेंगे, लेकिन नीतियाँ बनाना हमारा काम नहीं है। वह काम संसद का है।” इसने साबित कर दिया कि धारा 142 केवल शक्ति नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भी है और एक संतुलन भी, जो भारत जैसे लोकतंत्र को मजबूती देता है। धारा 142 भारतीय संविधान की आत्मा के उस हिस्से को दर्शाती है जो कहता है “न्याय केवल कागजों पर नहीं, जिंदगी में होना चाहिए।”यह धारा सुप्रीम कोर्ट को ताकत देती है, लेकिन साथ ही जिम्मेदारी भी कि वह इस ताकत का प्रयोग तभी करे जब देश का न्याय तंत्र पूरी तरह से चुप हो जाए। धारा 142 वह मशाल है, जो अंधेरे में भी इंसाफ का रास्ता दिखाती है।