भारत की सियासत में उस वक्त हड़कंप मच गया, जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अचानक अपने पद से इस्तीफा दे दिया। 21 जुलाई 2025 को, संसद के मानसून सत्र के पहले दिन, धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपना त्यागपत्र सौंपा। लेकिन इस इस्तीफे की टाइमिंग और इसके पीछे की परिस्थितियों ने सियासी गलियारों में तूफान खड़ा कर दिया। धनखड़ का यह कहना कि वे विदाई भाषण भी नहीं देंगे, ने साफ कर दिया कि मामला उतना साधारण नहीं है, जितना दिखता है। क्या यह इस्तीफा सिर्फ सेहत की वजह से था, या इसके पीछे कोई गहरा सियासी खेल चल रहा था? आइए, इस कहानी को गहराई से समझते हैं, ताकि हर पहलू बारीकी से सामने आए।
74 वर्षीय जगदीप धनखड़, जिन्होंने अगस्त 2022 में भारत के 14वें उपराष्ट्रपति के रूप में शपथ ली थी, का कार्यकाल 2027 तक था। अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा, “स्वास्थ्य देखभाल को प्राथमिकता देने और चिकित्सीय सलाह का पालन करने के लिए, मैं संविधान के अनुच्छेद 67(ए) के अनुसार तत्काल प्रभाव से उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा देता हूं।” सूत्रों के मुताबिक, मार्च 2025 में उनकी एंजियोप्लास्टी हुई थी, और हाल ही में नैनीताल में उनकी तबीयत बिगड़ने की खबरें भी सामने आई थीं। लेकिन 21 जुलाई को जिस तरह उन्होंने पूरे जोश के साथ राज्यसभा की कार्यवाही संभाली, उससे किसी को यह भनक तक नहीं थी कि कुछ ही घंटों में वे इतना बड़ा कदम उठा लेंगे।
सोमवार को धनखड़ ने सुबह से शाम तक अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं। उन्होंने नवनिर्वाचित और मनोनीत राज्यसभा सांसदों को शपथ दिलाई, मृतक पूर्व सांसदों को श्रद्धांजलि दी, और दोपहर 12:30 बजे बिजनेस एडवाइजरी कमेटी (बीएसी) की बैठक की अध्यक्षता की। इस बैठक में सत्तापक्ष और विपक्ष के बड़े नेता मौजूद थे। अगली बैठक शाम 4:30 बजे तय हुई, लेकिन इसमें बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और संसदीय कार्यमंत्री किरेन रिजिजू की गैरमौजूदगी ने धनखड़ को नाराज कर दिया। सूत्रों का कहना है कि इस गैरमौजूदगी की कोई पूर्व सूचना उन्हें नहीं दी गई थी, जिससे वे आहत हुए। बीएसी की इस दूसरी बैठक में सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री एल. मुरुगन ने सत्तापक्ष का प्रतिनिधित्व किया, जिन्होंने बैठक को अगले दिन के लिए टालने का अनुरोध किया। लेकिन धनखड़ की नाराजगी इस बात से थी कि सत्तापक्ष के बड़े नेता उनकी बुलाई बैठक को गंभीरता से नहीं ले रहे थे।
इसी दिन एक और बड़ा घटनाक्रम सामने आया। धनखड़ ने जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव के लिए विपक्ष के 63 सांसदों के नोटिस को तुरंत स्वीकार कर लिया। दोपहर 2 बजे खबर आई कि लोकसभा में भी सत्तापक्ष और विपक्ष के 152 सांसदों ने इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं। धनखड़ ने जजेज (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 का हवाला देते हुए इस प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाने की बात कही और कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल से इसकी पुष्टि भी करवाई। उनकी यह त्वरित कार्रवाई कई सवाल खड़े कर रही है। कुछ का मानना है कि धनखड़ इस महाभियोग को राज्यसभा में शुरू करवाकर इसका चेहरा बनना चाहते थे। लेकिन विपक्ष ने इस प्रक्रिया को गोपनीय रखा और इसका श्रेय अपने नाम कर लिया, जिससे सत्तापक्ष को भनक तक नहीं लगी। यह सवाल उठता है कि क्या धनखड़ की यह “अति-उदारता” सत्तापक्ष को खटक गई?
सत्तापक्ष की खामोशी इस पूरे प्रकरण को और रहस्यमय बनाती है। बीजेपी, जो हमेशा धनखड़ के पीछे चट्टान की तरह खड़ी रही, इस बार उनके इस्तीफे पर चुप है। बड़े नेताओं ने न तो कोई बयान दिया और न ही सोशल मीडिया पर उनके स्वास्थ्य की कामना की। सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार दोपहर 12:13 बजे एक ट्वीट में लिखा, “श्री जगदीप धनखड़ जी को भारत के उपराष्ट्रपति सहित कई भूमिकाओं में देश की सेवा करने का अवसर मिला है। मैं उनके उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूं।” लेकिन यह ट्वीट भी औपचारिक-सा लगा। दूसरी ओर, विपक्ष ने इस मौके को भुनाने में देर नहीं की। कांग्रेस सांसद इमरान मसूद ने सवाल उठाया, “वे पूरे दिन संसद में सक्रिय थे। फिर अचानक एक घंटे में ऐसा क्या हुआ कि इस्तीफा देना पड़ा?” शिवसेना (यूबीटी) की प्रियंका चतुर्वेदी ने इसे “चौंकाने वाला” बताया, जबकि कांग्रेस के गौरव गोगोई ने पूछा कि क्या सरकार को इस इस्तीफे की पहले से जानकारी थी।
धनखड़ का सियासी सफर हमेशा चर्चा में रहा। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के तौर पर उनका ममता बनर्जी सरकार के साथ तीखा टकराव रहा। उपराष्ट्रपति बनने के बाद भी उनकी कार्यशैली पर सवाल उठे। दिसंबर 2024 में विपक्ष ने उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की कोशिश की, जो नियमों के उल्लंघन के कारण खारिज हो गया। धनखड़ ने इसे अपनी गरिमा पर हमला बताया था। लेकिन अब, जब उन्होंने खुद इस्तीफा दे दिया, तो विपक्ष भी हैरान है। कुछ विपक्षी नेताओं का कहना है कि धनखड़ की जस्टिस वर्मा के महाभियोग प्रस्ताव को लेकर त्वरित कार्रवाई और उनकी न्यायपालिका पर लगातार टिप्पणियां सत्तापक्ष को रास नहीं आईं। धनखड़ ने कई बार सुप्रीम कोर्ट के बेसिक स्ट्रक्चर सिद्धांत और आर्टिकल 142 को “लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ न्यूक्लियर मिसाइल” जैसे बयानों से सुर्खियां बटोरी थीं। क्या ये बयान उनकी विदाई की वजह बने?
सूत्रों का कहना है कि बीएसी की दूसरी बैठक में नड्डा और रिजिजू की गैरमौजूदगी ने धनखड़ को यह एहसास दिलाया कि उनकी बात को तवज्जो नहीं दी जा रही। एक विपक्षी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “धनखड़ को लगता था कि वे संसद की गरिमा और प्रक्रिया की रक्षा कर रहे हैं, लेकिन सत्तापक्ष ने उन्हें अकेला छोड़ दिया।” कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह इस्तीफा बीजेपी की किसी बड़ी सियासी रणनीति का हिस्सा हो सकता है, खासकर बिहार विधानसभा चुनाव को देखते हुए। एक सांसद ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “सियासत में कुछ भी अचानक नहीं होता। इस इस्तीफे की पटकथा पहले से लिखी जा चुकी थी।”
संविधान के मुताबिक, धनखड़ के इस्तीफे के बाद 60 दिनों के भीतर नए उपराष्ट्रपति का चुनाव करना होगा। तब तक राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह कार्यवाहक सभापति की जिम्मेदारी संभालेंगे। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या यह इस्तीफा सिर्फ स्वास्थ्य कारणों से हुआ, या इसके पीछे सत्तापक्ष और धनखड़ के बीच कोई गहरी खटास थी? क्या जस्टिस वर्मा के महाभियोग प्रस्ताव ने इस फैसले को तेज किया? या फिर यह बीजेपी की किसी सियासी चाल का हिस्सा है? धनखड़ की तीन साल की यात्रा में उन्होंने किसानों के मुद्दे पर खुलकर बात की, संसद की सर्वोच्चता की वकालत की, और विपक्ष को भी कई बार साथ लिया। लेकिन उनकी यह सक्रियता शायद सत्तापक्ष को भारी पड़ गई। बीजेपी की चुप्पी और विपक्ष की बेचैनी इस कहानी को और रहस्यमय बना रही है। अगले कुछ दिन शायद इस पहेली को सुलझा दें, लेकिन फिलहाल यह सवाल हर किसी के मन में है कि आखिर सच क्या है? क्या धनखड़ का इस्तीफा उनकी सेहत की मजबूरी थी, या सियासत का कोई छिपा हुआ दांव? समय ही इसका जवाब देगा।