जजों को डराने की साजिश में शामिल बीजेपी नेताओं पर क्या होगी कार्रवाई

समाचार मंच

भारत के लोकतंत्र की तीन प्रमुख शाखाएं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संतुलन और पारदर्शिता के स्तंभ हैं। परंतु हालिया घटनाओं ने इस संतुलन पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। सुप्रीम कोर्ट, जिसे लोकतंत्र का मंदिर माना जाता है, पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के कुछ वरिष्ठ नेताओं द्वारा की गई टिप्पणियों ने एक नई बहस को जन्म दिया है क्या राजनीतिक आलोचना न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर कर रही है?

यह विवाद तब शुरू हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने एक संवेदनशील मामले में केंद्र सरकार के निर्णय को पलटते हुए एक फैसला सुनाया। अदालत के इस फैसले पर बीजेपी के कुछ प्रमुख नेताओं ने खुलकर सवाल उठाए। उन्होंने न केवल न्यायिक प्रक्रिया पर संदेह जताया, बल्कि अदालत की मंशा पर भी टिप्पणी की। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने एक बयान में कहा, कुछ फैसलों से ऐसा लगता है कि अदालतें नीति-निर्माण की भूमिका निभा रही हैं, जो संविधान के ढांचे के खिलाफ है।ष् वहीं, भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने ट्वीट कर कहा, ष्कुछ जज राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित हैं, यह खतरनाक संकेत है।

विपक्षी दलों ने इस हमले को संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन करार दिया। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा, यह न्यायपालिका को डराने की कोशिश है। बीजेपी सरकार नहीं चाहती कि कोई संस्था उसके फैसलों की समीक्षा करे।
वहीं, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष दुश्‍यंत दवे ने कहा, यह अभूतपूर्व है कि सत्तारूढ़ दल के नेता खुलेआम अदालतों को धमका रहे हैं। अगर यह ट्रेंड बन गया तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी।

खैर, इस पूरे मामले ने एक बुनियादी सवाल भी खड़ा किया है कि क्या सरकार या राजनीतिक दलों के पास अदालतों की आलोचना करने का अधिकार है, या यह न्यायालय की अवमानना मानी जानी चाहिए? वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण कहते हैं, आलोचना हमेशा न्यायिक जवाबदेही को मजबूत करती है, लेकिन जब वह दुर्भावनापूर्ण हो और न्यायाधीशों को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाए, तो यह चिंता का विषय बन जाता है।ष्

सुप्रीम कोर्ट ने इन बयानों पर अभी तक कोई औपचारिक टिप्पणी नहीं की है, लेकिन सूत्रों का कहना है कि मुख्य न्यायाधीश इस घटनाक्रम को गंभीरता से ले रहे हैं। माना जा रहा है कि अदालत इस पर स्वतः संज्ञान भी ले सकती है, हालांकि यह कदम बहुत सोच-समझकर उठाया जाएगा।

बहरहाल,यह पहली बार नहीं है जब सरकार और न्यायपालिका आमने-सामने आए हों। इंदिरा गांधी के समय में भी न्यायपालिका पर राजनीतिक दबाव की बातें होती रही हैं। हालाँकि, मौजूदा दौर में सोशल मीडिया और न्यूज़ मीडिया के कारण ऐसे टकराव अधिक सार्वजनिक हो गए हैं। बीजेपी के एक प्रवक्ता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, हम अदालतों का सम्मान करते हैं, लेकिन जब वे जनादेश को नज़रअंदाज़ करती हैं, तो हमें बोलना ही पड़ता है।

एक वर्ग का मानना है कि यह आलोचना लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। लोकतंत्र में किसी भी संस्था को पूर्णतः आलोचना से परे नहीं माना जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि जब सत्ता पक्ष खुद न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा करता है, तो क्या यह संस्थागत संरचना को कमजोर नहीं करता? प्रसिद्ध राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं, हम एक ऐसे समय में हैं जहाँ संस्थाओं की स्वायत्तता को लेकर गहरी चिंता है। अगर न्यायपालिका को भी संदेह के घेरे में ला दिया गया, तो फिर आम आदमी किससे न्याय मांगेगा?

बता दें भारतीय संविधान न्यायपालिका को ‘संविधान का संरक्षक’ मानता है। सुप्रीम कोर्ट के पास यह शक्ति है कि वह कार्यपालिका या विधायिका के किसी भी कार्य को असंवैधानिक करार दे सकती है। परंतु जब यह शक्ति बार-बार राजनीतिक हितों के विरुद्ध उपयोग होती है, तो टकराव स्वाभाविक हो जाता है। हाल ही में कोर्ट ने चुनाव आयोग की नियुक्ति में केंद्र सरकार की भूमिका को सीमित करने का निर्देश दिया था। इससे पहले, पेगासस जासूसी मामले में कोर्ट ने स्वतंत्र जांच के आदेश दिए थे। ये फैसले सत्ता पक्ष को असहज करने वाले थे।

कुलमिलाकर सुप्रीम कोर्ट पर बीजेपी नेताओं की आलोचना भारत के संवैधानिक ढांचे के सामने एक गंभीर प्रश्न खड़ा करती है। क्या यह एक स्वस्थ बहस की शुरुआत है, या लोकतंत्र के मूलभूत स्तंभों में से एक को कमजोर करने की साज़िश? जवाब आसान नहीं है। लेकिन यह निश्चित है कि यदि न्यायपालिका की गरिमा और स्वतंत्रता पर आंच आई, तो लोकतंत्र की आत्मा पर गहरी चोट पहुंचेगी।

ज़रूरत है कि सभी पक्ष एक-दूसरे की संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करें। अगर राजनीतिक दल न्यायपालिका की आलोचना करते हैं, तो उन्हें जिम्मेदारी और मर्यादा का पालन करना होगा। वहीं, न्यायपालिका को भी यह ध्यान रखना होगा कि उनके फैसले पारदर्शी, न्यायसंगत और तर्कपूर्ण हों ताकि आम जनता का विश्वास बना रहे।

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