जिस बैटरी रिक्शा को कभी शहरी आवागमन का क्रांतिकारी विकल्प माना गया था, वही आज शहरों की रफ्तार थामने वाला सबसे बड़ा रोड़ा बन चुका है। ये कथित ‘हरित यान’ आज भारत के छोटे-बड़े शहरों की सड़कों पर जिस अंदाज़ में हावी हैं, वह किसी भी जिम्मेदार शहरी नीति का मखौल उड़ाने के लिए काफी है। एक तरफ सरकारें प्रदूषण घटाने के दावे करती हैं, दूसरी तरफ हर गली-कूचे में हज़ारों ई-रिक्शा खड़े मिलते हैं बिना लाइसेंस, बिना पंजीकरण, बिना तय रूट या पार्किंग के। यह विडंबना ही है कि जो साधन गरीब को रोजगार और जनता को सस्ता सफर देने आया था, वही आज शहरों में ट्रैफिक जाम, फुटपाथ कब्ज़ा और सड़क सुरक्षा के लिए नई आफ़त बन गया है।
अगर यह सिर्फ वाहनों की संख्या या चालकों की मनमानी तक सीमित होता तो बात इतनी विकराल न होती। असल में यह समस्या हमारी प्रशासनिक काहिली और लोकल निकायों की अनदेखी से पैदा हुई।न तो किसी नगर निगम ने ई-रिक्शा के लिए पर्याप्त चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित किया, न ठोस पंजीकरण व्यवस्था लागू की। न ही पुलिस-प्रशासन ने चालकों के प्रशिक्षण पर ध्यान दिया। नतीजा यह कि आज किसी भी भीड़भाड़ वाले इलाके में ई-रिक्शा वालों का अघोषित अड्डा बन जाता है स्टेशन, बाजार, स्कूल, बस स्टैंड कहीं नियम का नामोनिशान नहीं।इन चालकों को किसी सिग्नल या लेन अनुशासन का मतलब नहीं पता। इनके लिए हर चौराहा पार्किंग स्पॉट है और हर फुटपाथ सवारी चढ़ाने-उतारने की जगह। कानून जब इनके लिए दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं, तो आम नागरिक की परेशानी तय है।
दूसरा पहलू राजनीतिक है ई-रिक्शा के पीछे हज़ारों गरीब परिवारों की रोज़ी-रोटी जुड़ी है। इन्हें हटाने की या नियंत्रित करने की हर कोशिश ‘गरीब विरोधी’ बताकर रोक दी जाती है। चालकों के संगठन सड़क पर उतरते हैं, नेता ‘वोट बैंक’ में फायदा देखकर इनके पक्ष में आ जाते हैं। प्रशासन का डंडा मजबूरी में ढीला पड़ जाता है।यह वही राजनीति है जो शहरों में मास्टर प्लान बनाने की बात तो करती है, लेकिन जब बारी लागू करने की आती है तो सारा जोर ग़रीब पर ‘रहम’ दिखाने में ही निकल जाता है बिना सोचे कि अनियंत्रित ई-रिक्शा खुद गरीबों को किस तरह सड़क हादसों, चालान और अनियमित कमाई के चक्रव्यूह में फंसा देते हैं।
कई शहरों में आधे से ज्यादा ई-रिक्शा बिना फिटनेस सर्टिफिकेट और वैध नंबर के चलते हैं। जिनके पास कोई कागज़ हैं भी, वे अपडेट नहीं। ट्रैफिक पुलिस को जब रोकना होता है, तो चालान की जगह मामूली जुर्माना लेकर छोड़ दिया जाता है। नतीजा नियमों की धज्जियां और सड़कों पर जाम की लंबी कतारें।शहरों में हर दिन लाखों लीटर ईंधन जाम में फूंका जा रहा है, घंटों की उत्पादकता बेकार जा रही है पर ‘ई-रिक्शा सस्ता है’ का तर्क सब पर भारी।
यह कहना भी अधूरा होगा कि सिर्फ शासन और राजनीति दोषी है। समाज भी जिम्मेदार है। जिस सवारी को जल्दी पहुंचना होता है, वही सड़क के बीच रिक्शा रुकवाता है। लोग पिक-अप पॉइंट तक जाने के बजाय चौराहे के बीच में चढ़-उतर जाते हैं। नतीजा जाम। फुटपाथ पैदल चलने के लिए बने थे, आज सवारियां उतारने-बिठाने के ठिकाने बन गए हैं। ऐसे में हर स्तर पर व्यवस्था का अर्थ खो जाता है।कभी-कभार नगर निगम या पुलिस ई-रिक्शा के खिलाफ मुहिम चलाते हैं चालान, जब्ती, ज़प्ती। लेकिन इसका असर चंद दिन रहता है। उसके बाद वही हाल। असल में हल जुर्माने में नहीं, बल्कि सुव्यवस्थित नीति में है।शहरों को अपनी ट्रैफिक क्षमता के हिसाब से ई-रिक्शा की अधिकतम संख्या तय करनी होगी। सख्त पंजीकरण, फिटनेस सर्टिफिकेट और चालकों के प्रशिक्षण के बिना कोई रिक्शा सड़क पर न चले। तय रूट, चिन्हित पिक-अप और ड्रॉप पॉइंट इन पर सख्ती से अमल हो।
जहां अतिक्रमण हो रहा है, वहां फुटपाथ वापस पैदल यात्रियों को मिले। चार्जिंग प्वाइंट हर मोहल्ले में तय हों, ताकि अवैध तारों से हादसे न हों। स्कूल रूट पर ओवरलोडिंग पर जुर्माने से ज्यादा जरूरी है वैकल्पिक साधन देना बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए।ई-रिक्शा को हटाने या चालकों पर ‘कठोर प्रहार’ की बात बेमानी है। असल समाधान यह है कि यह साधन उसी रूप में चले जिस रूप में इसे लाया गया था ग्रीन, सस्ता और सुरक्षित। चालक खुद भी सुरक्षित हों, उनकी आय स्थिर रहे, और सड़कों पर उनका संचालन अनुशासित हो। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए जो फिलहाल नदारद है।
शहर अगर सांस लेना चाहते हैं तो प्रशासन को भी अपने जुर्माना अभियान से आगे बढ़कर स्मार्ट सिटी जैसे शब्दों के साथ सही मायने में स्मार्ट काम करना होगा। तकनीक का इस्तेमाल हो सीसीटीवी, जीपीएस, ऑन-बोर्ड रजिस्ट्रेशन, डिजिटल भुगतान ये सब कागज़ों से निकलकर ज़मीन पर दिखें।और अंत में नागरिकों को भी तय करना होगा कि फुटपाथ पर रिक्शा नहीं, पैदल चलने वाला चलेगा। बीच सड़क पर सवारी नहीं चढ़ेगी। यही बुनियादी बातें इस ‘बैटरी रिक्शा राज’ की अराजकता पर लगाम लगाएंगी।वरना याद रखिए कोई भी नीति चाहे कितनी सुंदर क्यों न हो, वह ढीले अमल और ढुलमुल रवैये के आगे पंगु ही रहती है।