बिहार की चौपाल से उठती आवाज़: कांग्रेस की भाषा का खामियाज़ा राजद को?

पटना से लेकर सिवान और पूर्णिया तक, इस वक्त बिहार का चुनावी माहौल गरमाया हुआ है। लेकिन गांव की चौपालों और शहर के नुक्कड़ों पर चर्चा केवल बेरोज़गारी या विकास पर नहीं, बल्कि नेताओं की भाषा पर भी हो रही है। कांग्रेस के बड़े नेता राहुल गांधी और उनके कुछ सहयोगियों की तीखी, कभी-कभी गाली-गलौज वाली भाषा लोगों की जुबान पर चढ़ गई है। और सबसे दिलचस्प बात यह है कि लोग केवल कांग्रेस की आलोचना नहीं कर रहे, बल्कि यह भी पूछ रहे हैं कि आखिर राजद चुप क्यों है।

छपरा जिले के एक चाय दुकान पर बैठे रामलाल यादव कहते हैं  गाली से चुनाव थोड़े जीतल जा सकेला। मुद्दा पर बात करे के चाहीं। ई सब कांग्रेस वाला हमनी के राजद के छवि बिगार रहल बा। उनके पास बैठे कॉलेज पढ़ने वाले रवि कुमार सहमति जताते हैं। वे कहते हैं कि आज के युवा पहले से ज़्यादा जागरूक हैं, वे सोशल मीडिया पर मिनट-मिनट नेताओं की हर बात सुनते-देखते हैं। “हम बेरोज़गारी, परीक्षा में धांधली और नौकरी मांगते हैं। लेकिन अगर नेता हर मंच पर अपशब्द ही बोलेंगे तो हम क्यों उन पर भरोसा करें? दरअसल राहुल गांधी का भाषण अंदाज़ दिल्ली या कर्नाटक में समर्थकों को भले भाता हो, मगर बिहार की ज़मीन अलग है। यहां जनता नेताओं की सीधी और हाज़िरजवाब भाषा पसंद करती है, लेकिन उसमें गाली-गलौज को बर्दाश्त नहीं किया जाता। लालू यादव इसी कारण आज भी गांव-गांव में लोकप्रिय बने हुए हैं। वे तंज कसते हैं, हंसी में विरोधी की पोल खोल देते हैं, लेकिन सभ्यता की एक सीमा पार नहीं करते।



मुज़फ्फरपुर के किसान ताज मोहम्मद कहते हैं  लालू जी बोलत रहलें त भीड़ हंसी में लोटपोट हो जाला। अब राहुल बाबा बोलत बाड़न, तका सुनके लागेला कि लड़ाई हम सबके बीच हो रहल बा, सभ्यता गायब हो गइल बा।राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस के शब्दों की यह तीखापन मोदी सरकार पर हमले से ज़्यादा, बिहार में अपने साथी दल पर बोझ बन सकता है। राजद के नेता जब गांव-गांव प्रचार करने जाते हैं, तो आम मतदाता उनसे सवाल पूछते हैं कि उनके साथी ऐसे शब्द क्यों बोलते हैं। इसका मतलब यह है कि कांग्रेस की भाषा का नकारात्मक असर राजद की साख पर पड़ रहा है।

बीजेपी इस मौके को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। उनके नेता अपने भाषणों में बार-बार राहुल गांधी के तीखे बयानों का हवाला देते हैं और जनता को समझाने की कोशिश करते हैं कि विपक्ष केवल गाली दे सकता है, लेकिन विकास का कोई विज़न नहीं रखता। नालंदा के कॉलेज के प्रोफेसर शंकर झा कहते हैं, *“बिहार का मतदाता केवल जातीय समीकरण तक सीमित नहीं है। वह भाषा और शालीनता को भी देखता है। आक्रामकता यहां अक्सर उल्टा असर डालती है।शिवहर में युवा मतदाताओं की टोली बैठी हुई चर्चा कर रही थी। उनमें से एक ने कहा कि कांग्रेस अगर गंभीर पार्टनर बनकर चलती, तो शायद महागठबंधन को फायदा होता। लेकिन जब बड़े नेता ही मुद्दे से भटककर निजी तंज करते हैं, तो मतदाता को लगता है कि ये बदलाव की राजनीति नहीं कर पाएंगे।



इस चुनावी परिदृश्य में राजद की दुविधा यह है कि वह कांग्रेस को नाराज़ करके गठबंधन नहीं तोड़ सकती, लेकिन जनता के सवालों से भी बच नहीं सकती। इसलिए राजद के स्थानीय नेता कई बार पब्लिक मीटिंग में सफाई देते हैं कि उनके सहयोगियों के बयान उनकी सोच नहीं हैं। हालांकि जनता यह मानने को तैयार नहीं होती और यही बात राजद को कमजोर स्थिति में डाल सकती है। फुलवारी शरीफ़ के एक बुजुर्ग मतदाता नसीर अहमद कहते हैं “राजद हमनी के पार्टी ह, लेकिन अगर कांग्रेस के नेता रोज नयी गाली मारते रहिहें त हमनी के छवि खराब हो जाई। मतदाता ई सब सोचे ला।

स्पष्ट है कि बिहार का मैदान केवल गठबंधन की सीट बंटवारे की राजनीति से तय नहीं होगा। यहां का मतदाता नेताओं की भाषा को भी बारीकी से सुनता है। राहुल गांधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं को अगर अपनी छवि गंभीर विपक्षी नेता की बनानी है, तो भाषा में संयम लाना ही होगा। वरना तात्कालिक जोश में बोले गए शब्द राजद के वोट शेयर पर चोट कर सकते हैं। गांव की चौपालों और शहरों के नुक्कड़ों से यही संदेश निकलकर आता है कि बिहार की ज़मीन पर चुनावी लड़ाई गाली से नहीं, बल्कि सवाल-जवाब और मुद्दों पर जीतनी होगी। अगर कांग्रेस अपनी रणनीति में बदलाव नहीं करती, तो इसका राजनीतिक नुकसान केवल कांग्रेस तक सीमित नहीं रह जाएगा, बल्कि सहयोगी दल राजद को भी भुगतना पड़ सकता है।



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