बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया ने हाल के महीनों में राजनीतिक और सामाजिक हलकों में तीव्र बहस को जन्म दिया है, खासकर बांग्लादेश की सीमा से सटे चार जिलों अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार में 7.6 लाख मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटाए जाने के बाद। यह प्रक्रिया, जिसका उद्देश्य मतदाता सूची को शुद्ध और अद्यतन करना था, अब सत्ताधारी और विपक्षी दलों के बीच एक राजनीतिक रणभूमि बन चुकी है। इन जिलों में 1,58,072 (अररिया), 1,45,668 (किशनगंज), 2,73,920 (पूर्णिया), और 1,84,254 (कटिहार) मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं, जिससे सीमांचल क्षेत्र, जो मुस्लिम बहुल और नेपाल-बांग्लादेश की सीमाओं से सटा हुआ है, में राजनीतिक तनाव और बढ़ गया है।
चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया को मृत, डुप्लिकेट, या अन्य स्थानों पर स्थानांतरित हो चुके मतदाताओं की पहचान के लिए आवश्यक बताया है। आयोग के अनुसार, बिहार में कुल 7.89 करोड़ मतदाताओं में से 7.24 करोड़ ने गणना फॉर्म जमा किए, जबकि 65 लाख नाम हटाए गए, जिनमें 22 लाख मृत, 36 लाख विस्थापित, और 7 लाख दोहरे पंजीकरण वाले शामिल हैं। सीमांचल में हटाए गए 7.6 लाख नामों में मृतकों की संख्या 2,55,276 बताई गई है, खासकर पूर्णिया में सबसे अधिक। हालांकि, विपक्षी दल, विशेष रूप से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और अन्य महागठबंधन सहयोगी, इसे नागरिकता की जांच और मताधिकार छीनने का प्रयास मानते हैं। उनका आरोप है कि यह प्रक्रिया संवेदनशील क्षेत्रों में जनसांख्यिकीय बदलाव को प्रभावित करने की कोशिश है, जिसका लक्ष्य मुस्लिम मतदाताओं को निशाना बनाना हो सकता है।
सत्ताधारी एनडीए, विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), इस प्रक्रिया का समर्थन करती है, इसे निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव की दिशा में एक कदम बताते हुए। उनका दावा है कि सीमांचल में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों ने अवैध रूप से मतदाता सूची में नाम दर्ज कराए थे, और एसआईआर ने इन फर्जी मतदाताओं को हटाकर सूची को शुद्ध किया है। यह मुद्दा सीमांचल की 24 विधानसभा सीटों पर और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जहां 2020 के चुनावों में एनडीए और महागठबंधन के बीच कड़ा मुकाबला देखा गया था, और ।प्डप्ड ने पांच सीटें जीतकर क्षेत्र में ध्रुवीकरण को बढ़ाया था। इस बार, मतदाता सूची से नाम हटने से दोनों गठबंधनों के लिए रणनीतिक चुनौतियां बढ़ गई हैं, क्योंकि यह क्षेत्र पहले से ही धार्मिक और सामुदायिक आधार पर ध्रुवीकृत रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में हस्तक्षेप की संभावना जताई है, खासकर यदि ष्सामूहिक रूप से नाम हटानेष् की स्थिति सामने आती है। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से गड़बड़ियों के ठोस उदाहरण मांगे हैं और 12-13 अगस्त को इसकी वैधता पर अंतिम सुनवाई निर्धारित की है। यह प्रक्रिया संवैधानिक और जनप्रतिनिधित्व कानून, 1950 के तहत हो रही है, जैसा कि आयोग ने स्पष्ट किया है, लेकिन विपक्ष इसे ष्पीछे के दरवाजे से नागरिकता पर हमलाष् मानता है। आयोग ने जवाब में कहा कि नाम हटाना नागरिकता समाप्त करने जैसा नहीं है, और यह केवल मतदाता सूची की शुद्धता के लिए है। फिर भी, विपक्षी दलों का तर्क है कि यह प्रक्रिया पारदर्शिता की कमी और संभावित भेदभाव को दर्शाती है, खासकर जब सीमांचल जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में इतनी बड़ी संख्या में नाम हटाए गए हैं।
एसआईआर प्रक्रिया में बूथ स्तरीय अधिकारियों (बीएलओ) और बूथ स्तरीय एजेंटों (बीएलए) ने घर-घर जाकर गणना फॉर्म इकट्ठा किए, और मतदाताओं को पहचान दस्तावेज जमा करने थे। हालांकि, कई मतदाता अपने पंजीकृत पते पर नहीं मिले, और कुछ ने फॉर्म जमा नहीं किए, जिसके कारण उनके नाम हटाए गए। आयोग ने 1 अगस्त से 1 सितंबर तक दावे और आपत्तियां दर्ज करने का समय दिया है, ताकि गलत हटाए गए नामों को सुधारा जा सके। फिर भी, सीमांचल में नाम हटने की प्रक्रिया ने सामुदायिक तनाव को बढ़ाया है, क्योंकि यह क्षेत्र पहले से ही घुसपैठ के आरोपों और सांप्रदायिक राजनीति का केंद्र रहा है।
यह विवाद न केवल तकनीकी प्रक्रिया तक सीमित है, बल्कि यह बिहार की सामाजिक और राजनीतिक संरचना को भी प्रभावित कर रहा है। सीमांचल में मुस्लिम बहुल आबादी और घुसपैठ के पुराने आरोप इस मुद्दे को और जटिल बनाते हैं। विपक्ष का मानना है कि यह प्रक्रिया सत्ताधारी दल की रणनीति का हिस्सा हो सकती है, जिसका उद्देश्य उनके वोट बैंक को कमजोर करना है। दूसरी ओर, एनडीए इसे चुनावी प्रक्रिया की शुद्धता के लिए आवश्यक मानता है। इस बीच, मतदाताओं में भय और अनिश्चितता है, क्योंकि कई लोग अपने नाम सूची से हटने के कारण चिंतित हैं।
आगामी विधानसभा चुनावों से पहले यह मुद्दा और तूल पकड़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला और मतदाताओं की प्रतिक्रिया इस प्रक्रिया की दिशा तय करेगी। यदि पारदर्शिता और निष्प
