चिनाब का पानी रुका, पाकिस्तान में मची हाहाकार

संजय सक्सेना,वरिष्ठ पत्रकार

सिंधु जल समझौते की स्याही अभी सूखी भी न थी कि सरहदों पर एक नई आशंका का बादल मंडराने लगा। भारत, ऊपरी तटवर्ती देश होने के नाते, अपनी नदियों के जल संसाधनों पर अपना अधिकार जता रहा था। हाल ही में, एक अप्रत्याशित कदम उठाते हुए, भारत सरकार ने चिनाब नदी के पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने का निर्णय लिया। इस खबर ने पाकिस्तान में एक भूचाल ला दिया। चिनाब, जो पाकिस्तान की जीवन रेखाओं में से एक है, का पानी रुकने का मतलब था एक ऐसी आपदा का दस्तक देना जिसकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप उठती थी।

पाकिस्तान के पंजाब प्रांत, जो सदियों से चिनाब के मीठे पानी से सींचा गया था, में मातम पसर गया। हरे-भरे खेत, जो कभी गेहूं और धान की सुनहरी बालियों से लहलहाते थे, अब प्यासी धरती के बंजर टुकड़े में तब्दील होने लगे। किसान, जिनकी पीढ़ियां इसी नदी के किनारे पली-बढ़ी थीं और जिन्होंने इसी के पानी से अपनी जमीन को सोना बनाया था, अब असहाय होकर सूखे आकाश की ओर ताक रहे थे। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी होती जा रही थीं, आंखों में भविष्य की अनिश्चितता का धुंध छाया हुआ था।

सबसे पहला और सीधा असर कृषि पर पड़ा। सिंचाई के लिए पानी की कमी ने फसलों को मुरझा दिया। कपास, गन्ना और चावल जैसी मुख्य फसलें, जो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थीं, बुरी तरह प्रभावित हुईं। लाखों किसान और खेतिहर मजदूर बेरोजगार हो गए। मंडियों में अनाज की किल्लत होने लगी और खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूने लगीं। गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया। भूख और निराशा ने लोगों को घेर लिया, और गांवों से शहरों की ओर पलायन शुरू हो गया, जिससे पहले से ही बोझ तले दबे शहरी इलाकों में और भी दबाव बढ़ गया।

सिर्फ खेती ही नहीं, पाकिस्तान का औद्योगिक क्षेत्र भी इस जल संकट से अछूता नहीं रहा। कई बड़े उद्योग, जैसे कपड़ा मिलें और चीनी मिलें, अपनी उत्पादन प्रक्रियाओं के लिए चिनाब के पानी पर निर्भर थे। पानी की आपूर्ति बाधित होने से इन इकाइयों में उत्पादन ठप हो गया, जिससे हजारों और लोग बेरोजगार हो गए। निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुआ, और पाकिस्तान की पहले से ही कमजोर अर्थव्यवस्था और भी संकट में घिर गई। विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घटने लगा, और सरकार के लिए आर्थिक स्थिरता बनाए रखना एक बड़ी चुनौती बन गया।

शहरों में भी पानी की किल्लत ने हाहाकार मचा दिया। पीने के पानी के लिए लंबी-लंबी कतारें लगने लगीं। लोगों को कई किलोमीटर दूर से पानी ढोकर लाना पड़ रहा था। स्वच्छता की स्थिति बिगड़ने लगी, जिससे जलजनित बीमारियों का खतरा बढ़ गया। अस्पताल मरीजों से भरने लगे, और स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गईं। बच्चों और बुजुर्गों को सबसे ज्यादा परेशानी हो रही थी। उनकी कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता उन्हें बीमारियों का आसान शिकार बना रही थी।

सरकार पर चौतरफा दबाव बढ़ने लगा। विपक्षी दलों ने सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन शुरू कर दिया। आम जनता में गुस्सा और निराशा व्याप्त थी। सरकार के लिए इस अभूतपूर्व संकट से निपटना एक कठिन चुनौती बन गया था। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी पाकिस्तान ने इस मुद्दे को उठाया, लेकिन भारत ने इसे अपना आंतरिक मामला बताया।

चिनाब का पानी रुकने से पाकिस्तान के सामाजिक ताने-बाने पर भी गहरा असर पड़ा। पानी की कमी को लेकर समुदायों के बीच तनाव बढ़ने लगा। संसाधनों के लिए संघर्ष आम बात हो गई। लोगों के धैर्य का बांध टूटने लगा और छोटी-छोटी बातों पर भी झगड़े होने लगे। आपसी विश्वास और सौहार्द कम होने लगा।

यह सिर्फ एक नदी का पानी रुकना नहीं था, बल्कि एक सभ्यता की जड़ों पर कुल्हाड़ी चलना था। चिनाब, सदियों से इस धरती को सींचता आया था, यहां की संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा बन चुका था। उसका रुक जाना मानो इतिहास के एक महत्वपूर्ण पन्ने का पलट जाना था।

हालांकि, इस संकट की घड़ी में कुछ उम्मीद की किरणें भी दिखाई दीं। पाकिस्तानी समाज के विभिन्न वर्गों ने एक साथ आकर इस चुनौती का सामना करने का संकल्प लिया। स्वयंसेवी संगठन लोगों तक पानी और भोजन पहुंचाने में जुट गए। जल संरक्षण के नए तरीकों पर विचार-विमर्श शुरू हुआ। किसानों ने कम पानी वाली फसलों की खेती करने के विकल्प तलाशने शुरू किए।

लेकिन यह सब तात्कालिक राहत थी। दीर्घकालिक समाधान के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत और सहयोग ही एकमात्र रास्ता था। जल बंटवारे के मुद्दे पर दोनों देशों को आपसी विश्वास और समझदारी से काम लेना होगा। प्रकृति के संसाधनों को राजनीतिक सीमाओं में बांधना अंततः दोनों देशों के लिए हानिकारक साबित होगा।

चिनाब का रुका हुआ पानी पाकिस्तान के लिए एक चेतावनी थी – प्रकृति के साथ खिलवाड़ और पड़ोसी देशों के साथ असहयोग के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। यह एक ऐसी कहानी थी जो सिर्फ पानी की कमी की नहीं, बल्कि मानवीय त्रासदी, आर्थिक संकट और सामाजिक उथल-पुथल की थी। यह एक ऐसी कहानी थी जो आने वाली पीढ़ियों को याद दिलाएगी कि जल सिर्फ एक संसाधन नहीं, बल्कि जीवन का आधार है, और इसे साझा करना और संरक्षित करना हम सबकी जिम्मेदारी है।

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