sanjay saxena
22 अप्रैल की सुबह जब सूरज की पहली किरणें पहलगाम की बर्फ से ढकी वादियों पर पड़ीं, तो किसी को अंदेशा नहीं था कि यह दिन कुछ निर्दोष सैलानियों की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल देगा। हरे-भरे देवदारों के बीच बसे इस छोटे से पर्यटन स्थल पर उस दिन एक ऐसी घटना घटी जिसने न केवल घाटी को दहला दिया, बल्कि पूरे देश के दिलों को भी झकझोर दिया।
दिल्ली से आई 34 वर्षीय अंजलि गुप्ता और उनका परिवार, कश्मीर की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेने के लिए पहलगाम पहुँचे थे। अंजलि, अपने पति और दो बच्चों के साथ पिछले कई महीनों से इस ट्रिप की योजना बना रही थीं। “हमने सोचा था कि बच्चों को बर्फ दिखाएँगे, शांति महसूस करेंगे,” अंजलि कहती हैं, “पर हमने कभी नहीं सोचा था कि एक आतंकी हमला हमारी खुशियों को यूँ छीन लेगा।”
हमला उस वक़्त हुआ जब पर्यटकों से भरी एक वैन पहलगाम के एक लोकप्रिय व्यू-पॉइंट से लौट रही थी। कुछ अज्ञात हमलावरों ने वैन पर गोलियाँ बरसा दीं, जिसमें तीन सैलानी घायल हो गए, जबकि एक स्थानीय ड्राइवर की मौत हो गई। हमले के दौरान चीख-पुकार, बच्चों की रुलाई और गोलियों की आवाज़ें घाटी की ख़ामोशी को चीर रही थीं।
एक मां की चीख और बच्चे का खौफ
वैन में बैठी 6 साल की आराध्या, अपनी मां की गोद में थी जब गोलियाँ चलीं। “उसे नहीं समझ आया कि हो क्या रहा है,” अंजलि कहती हैं, “पर जब खून देखा, तो बस चिल्ला उठी, ‘मम्मा, क्या हम मर जाएंगे?’” यह सवाल किसी भी मां के लिए एक ऐसा पल होता है, जो उसे भीतर से तोड़ देता है।
ड्राइवर बशीर अहमद, जो पिछले 15 वर्षों से पर्यटकों को कश्मीर घुमा रहा था, हमले में अपनी जान गंवा बैठा। उनके भाई, फारूक, रोते हुए कहते हैं, “वो तो बस अपना काम कर रहा था। उसका कसूर क्या था? सिर्फ़ इतना कि वो उस वक़्त वैन चला रहा था?”
घाटी की मेहमाननवाज़ी को लगा धब्बा
कश्मीरियों के दिल में पर्यटकों के लिए हमेशा एक खास जगह रही है। हर एक दुकान, हर एक घर – इस बात का साक्षी है कि कैसे कश्मीर के लोग अपने ‘मेहमानों’ को अपना समझते हैं। इस घटना के बाद स्थानीय लोगों में भी दुख और गुस्से का माहौल है।
“हम खुद इस हमले से शर्मिंदा हैं,” स्थानीय निवासी रईस कहते हैं, “यह हमला सिर्फ उन सैलानियों पर नहीं हुआ, यह हमारी इंसानियत पर हमला है।”
हमले के बाद, कई स्थानीय लोगों ने घायलों की मदद की, उन्हें अस्पताल पहुँचाया, खाने-पीने की चीजें दीं और उनके साथ रहे। “हम नहीं चाहते कि कोई भी सैलानी यह सोचे कि कश्मीर उनके लिए सुरक्षित नहीं है,” एक महिला ने कहा, जो अस्पताल में घायलों के लिए चाय और कंबल लेकर पहुँची थी।
मानसिक आघात का असर
घटना के बाद, पीड़ित परिवारों को ना केवल शारीरिक बल्कि गहरे मानसिक आघात से भी गुजरना पड़ रहा है। बच्चों के मन में डर बैठ गया है, नींद में डरावने सपने आते हैं, और अंजलि जैसी मांओं के लिए अब ‘सुरक्षा’ का मतलब ही बदल गया है।
“अब लगता है, कहीं भी जाना सुरक्षित नहीं,” अंजलि कहती हैं, “हम तो बस सुकून की तलाश में थे, लेकिन अब मेरे बच्चों के मन में डर है कि बाहर जाने का मतलब खतरा है।”
सरकारी प्रतिक्रिया और ज़िम्मेदारी
हमले के तुरंत बाद सुरक्षा बलों ने इलाक़े की घेराबंदी की, और हमलावरों की तलाश शुरू कर दी गई। सरकार ने घटना की निंदा की और कहा कि दोषियों को सख्त सजा मिलेगी। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या इन हमलों को पूरी तरह रोका जा सकता है? और अगर नहीं, तो क्या हम अपने देश में सुरक्षित महसूस कर सकते हैं?
मानवीयता की उम्मीद
इस त्रासदी के बीच, इंसानियत की कुछ किरणें भी चमकीं। एक बुजुर्ग कश्मीरी महिला जो अपने बेटे को खो चुकी है, अस्पताल में पीड़ितों के पास बैठी कहती हैं, “मैं जानती हूं दर्द क्या होता है। इसलिए जब मैंने उन्हें रोते देखा, तो लगा ये मेरे अपने हैं।”
कभी-कभी त्रासदी हमें यह सिखा देती है कि हम सब एक ही धड़कते हुए दिल से बने हैं – चाहे हम दिल्ली से हों, श्रीनगर से या पहलगाम से।