05 सितंबर बारावफात  पैगम्बर साहब के जन्मदिन की खुशियों का दिन

जावेद शिकोह, लखनऊ

इस्लामी परम्पराओं में अनेक पर्व और मौके मनाये जाते हैं। इन्हीं में से एक है ’बारावफात’, जिसे ’मौलूद’ या ’मिलादुन्नबी’ भी कहा जाता है। यह दिन पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद (सल्ल. अ.) के जन्म की याद में मनाया जाता है। इस्लामी हिजरी कालगणना के अनुसार, यह पर्व रबीउल अव्वल माह की बारहवीं तारीख को आता है। मुस्लिम समाज इस दिन को पैग़म्बर के प्रति श्रद्धा और सम्मान प्रकट करने के रूप में मानता है।इस पर्व का मूल आधार पैग़म्बर मोहम्मद का जन्मदिवस है। इस्लामी मान्यता के अनुसार, छठी सदी में मक्का नगर में उनका जन्म हुआ। उनका जीवन मानवता को सही राह दिखाने और बुराइयों से बचाने का संदेश लिए हुए था। मुसलमान मानते हैं कि पैग़म्बर ने समाज में समानता, भाईचारे और एकेश्वरवाद का मार्ग प्रस्तुत किया। इस कारण उनकी पैदाइश का दिन दुनिया के लाखों-करोड़ों मुसलमानों के लिये अत्यधिक महत्व रखता है।

बारावफात के अवसर पर मुस्लिम समाज विभिन्न गतिविधियाँ करता है। अलग-अलग इलाक़ों में इसे लेकर थोड़े-बहुत भेद हो सकते हैं, लेकिन मुख्य भाव एक ही रहता है, पैग़म्बर की याद और श्रद्धा। इस दिन अनेक स्थानों पर लोग एकत्र होकर, पैग़म्बर के जीवन से सम्बन्धित किस्से, उनकी शिक्षाओं और उनके द्वारा बताई गयी राह पर चर्चा करते हैं। सार्वजनिक जुलूसों में लोग नारे और सलाम पेश करते हैं।मिलाद शरीफ़ के इस मौके पर विशेष बैठकें आयोजित होती हैं, जिन्हें ‘मिलाद शरीफ़’ कहा जाता है। इनमें पैग़म्बर के जीवन चरित्र का उल्लेख, धार्मिक काव्य-पाठ और नेक राह की हिदायतें दी जाती हैं। ’’ख़ैरात और सेवा’’ में कई जगह इस दिन गरीबों और ज़रूरतमंदों में खाना बाँटा जाता है। कुछ लोग मस्जिदों और धार्मिक स्थलों पर दान करते हैं। यह इस पर्व का सामाजिक पहलू है, जिसका उद्देश्य आपसी सहयोग और भाईचारे को मज़बूत करना है।

मुसलमान बारावफात को पैग़म्बर मोहम्मद के प्रति अपने प्रेम और लगाव को प्रकट करने का अवसर मानते हैं। उनका विश्वास है कि इस दिन उनकी ज़िन्दगी से जुड़ी बातें याद करके इंसान सही राह की ओर बढ़ सकता है। पैग़म्बर की शिक्षाएँ आज भी मार्गदर्शक हैं, चाहे वह इंसाफ़ की बात हो, चाहे गरीबों और अनाथों की देखभाल, या फिर समाज में आपसी बराबरी की भावना। हालांकि, यह उल्लेखनीय है कि मुस्लिम समाज के भीतर बारावफात को लेकर भिन्न दृष्टिकोण भी मौजूद हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि इस्लाम में जन्मदिवस मनाने की परम्परा नहीं रही है, इसलिए इसे धार्मिक कर्तव्य नहीं कहा जा सकता। लेकिन बहुसंख्य लोग इसे पैग़म्बर से मोहब्बत के इज़हार का साधन मानते हैं और उत्साह से मनाते हैं।

सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बारावफात का सामाजिक आयाम भी अहम है। यह पर्व लोगों को आपस में जोड़ने का काम करता है। कस्बों और शहरों में इस मौके पर मोहल्ले-मोहल्ले या गाँव-गाँव सामूहिक भोजन, कव्वाली, नात और शिकवे-शिकायतें मिटाने की परम्परा देखी जाती है। इसका मक़सद समाज में मेल-मिलाप और एकजुटता को आगे बढ़ाना है। कई स्थानों पर बारावफात पर निकलने वाले जुलूस सांस्कृतिक स्वरूप ले लेते हैं, जिनमें झंडे, सजावट और ढोल-नगाड़ों की गूंज सुनाई देती है। बच्चे-बुज़ुर्ग, औरतें-पुरुष सब मिलकर इसमें शामिल होते हैं। इस प्रकार यह दिन धार्मिकता के साथ-साथ सांस्कृतिक उत्सव की शक्ल भी ले लेता है।

बारावफात का असली संदेश यही है कि इंसान अपने जीवन को नेक रास्ते पर ढाले। पैग़म्बर मोहम्मद की सीरत (जीवन पद्धति) यह बताती है कि इंसानियत, करुणा, समानता और ईश्वर की इबादत ही सच्चे जीवन का आधार हैं। आज के दौर में जब समाज विभाजन और मतभेदों में उलझा है, तब इस पर्व का संदेश अधिक प्रासंगिक हो जाता है। बारावफात मुसलमानों के लिए श्रद्धा और प्रेम का पर्व है। यह उनके आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन को एकसाथ जोड़ता है। जहाँ एक ओर यह पैग़म्बर के जीवन का स्मरण कराता है, वहीं दूसरी ओर समाज में भाईचारा और सहयोग का भाव भी जगाता है। अलग-अलग राय और मान्यताओं के बावजूद, यह पर्व मुस्लिम समाज की सांस्कृतिक और आस्था से जुड़ी गहरी परम्परा को दर्शाता है। यानी कि बारावफात सिर्फ एक धार्मिक अवसर नहीं है, बल्कि यह इंसानियत, सेवा और प्रेम का पैग़ाम भी देता है। यही कारण है कि मुस्लिम समाज इसे हर साल पूरे उत्साह और श्रद्धा से मनाता है।

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