आज के दौर में जब नशाखोरी एक गंभीर सामाजिक समस्या बनती जा रही है, ऐसे समय में एक सरल, स्वदेशी और प्रभावी पद्धति – ‘शिच्को पद्धति’ – लोगों को नई राह दिखा रही है। नशा छोड़ने के लिए न दवाइयों की ज़रूरत, न चिकित्सकीय इलाज की, बस आत्मबल, आत्मविश्वास और एक कलम–कागज़ का सहारा। यह पद्धति रूस के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जेन शिच्को द्वारा विकसित की गई थी, लेकिन भारत में इसे लोकप्रियता दिलाने का श्रेय जाता है स्वर्गीय नारायण शर्मा जी और उनके द्वारा संचालित संस्थाओं को।
क्या है शिच्को पद्धति?
शिच्को पद्धति आत्म-संवाद और सुझाव की शक्ति पर आधारित है। इसमें व्यक्ति रात्रि को सोने से पहले स्वयं से लिखित रूप में बात करता है – जैसे वह अपने मन से वादा कर रहा हो कि वह नशा नहीं करेगा। इसे “रात को लिखकर सोना” भी कहते हैं। यह प्रक्रिया आत्मविचार को जागृत करती है और मन के भीतर छिपी नकारात्मक प्रवृत्तियों को धीरे-धीरे खत्म करती है।
इसमें कोई दवा नहीं दी जाती, न ही कोई बाहरी चिकित्सा। व्यक्ति स्वयं अपनी दिनचर्या, भावनाओं और नशे की प्रवृत्ति को समझकर उससे बाहर निकलने की ठानता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि सोने से पहले की स्थिति में मस्तिष्क सबसे ज़्यादा ग्रहणशील होता है, और यही समय मनोवैज्ञानिक परिवर्तन के लिए सबसे प्रभावी है।
देशभर में फैलता आंदोलन:
आज भारत के कई राज्यों में नशा मुक्ति शिविर शिच्को पद्धति के ज़रिए आयोजित किए जा रहे हैं। विशेष रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में यह आंदोलन तेज़ी से फैल रहा है। इन शिविरों में कोई दवा नहीं दी जाती, बल्कि लोगों को स्वयं से जुड़ने और आत्मनिरीक्षण के ज़रिए नशा छोड़ने की प्रेरणा दी जाती है।
हाल ही में कोटा में आयोजित एक 7 दिवसीय शिविर में 500 से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया और उनमें से अधिकांश ने सफलतापूर्वक नशा त्याग दिया। इस शिविर का आयोजन आर्ट ऑफ लिविंग, विवेकानंद केंद्र, और कई अन्य समाजसेवी संस्थाओं के सहयोग से हुआ था।
सरकार और समाज का समर्थन:
अब राज्य सरकारें भी शिच्को पद्धति को अपनाने की दिशा में विचार कर रही हैं। राजस्थान सरकार ने हाल ही में कुछ जिलों में इसे सरकारी नशा मुक्ति कार्यक्रमों में सम्मिलित किया है। इसके अलावा, स्कूलों, कॉलेजों और पंचायत स्तर पर भी जनजागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं ताकि युवा पीढ़ी को नशे से दूर रखा जा सके।